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________________ बंधक - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १७-१८ इस प्रकार से वैमानिक देवों का प्रमाण जानना चाहिये । अब पहले जो सामान्य से रत्नप्रभापृथ्वी के नारकों की तथा भवनपति और सौधर्म देवलोक के देवों की संख्या असंख्यात सूचि श्रेणि प्रमाण बताई है, उसमें असंख्यात का प्रमाण नहीं कहा है, जिससे यह समझ में नहीं आता कि इन तीनों में कौन कम और कौन अधिक है । इसलिये यहाँ तीनों की असंख्यातरूप संख्या का निर्णय करने के लिये कहते हैं सेढीएक्क्कपएसरइय सूईणमंगुलप्पमियं । घम्माए भवणसोहम्मयाणमाणं इमं होइ ॥ १७ ॥ छप्पन्न दोसयंगुल भूओ भूओ विगब्भ मूलतिगं । गुणिया जहत्तरत्था रासीओ कमेण सूइओ ॥ १८ ॥ शब्दार्थ - सेढिएक्केक्कपएसरइय-श्रेणि के एक-एक आकाशप्रदेश द्वारा रचित, सूईणमंगुलपमियं -सूचि के अंगुल प्रमाण, घम्माए—– घर्मा का, भवणसोहम्मयाण - भवनपति और सौधर्मकल्प का, माणं प्रमाण, इमं - यह, होइ — होता है । - ४६ छप्पन्न दोसयंगुल - अंगुलमात्र क्षेत्र के दो सौ छप्पन प्रदेशों का, भूओ-भूओबारम्बार, विगब्भ - वर्गमूल लेकर, मूलतिगं - तीन मूल, गुणिया - गुणाकार करने पर, जहुत्तरत्था- यथाक्रम से उत्तर में स्थित, रासीओ - राशियाँ, कमेण — क्रम से, सूइओ - सूचिश्रेणियाँ | आनतादि में देवों का प्रमाण पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण है । अर्थात् आनत, प्राणत, आरण, अच्युत, नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश, विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित, इन छव्वीस कल्पों में से प्रत्येक के देवों का प्रमाण पल्य के असंख्यातवें भाग है । Jain Education International यह प्रमाण सामान्यतः जानना चाहिये, किन्तु विशेषरूप में उत्तरोत्तर आरणादि में संख्यात गुणा संख्यातगुणाहीन है । मानुषियों के प्रमाण से तिगुना या सतगुना सर्वार्थसिद्धि के देवों का प्रमाण है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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