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________________ ५० पंचसंग्रह गाथार्थ-श्रेणि के एक-एक आकाशप्रदेश द्वारा रचित सूचि के अंगुलप्रमाण क्षेत्र में से प्राप्त राशि घर्मा, भवनपति और सौधर्म देवलोक के जीवों का प्रमाण होता है। (असत्कल्पना से) अंगुलमात्र क्षेत्रवर्ती दो सौ छप्पन आकाशप्रदेशों का बारम्बार वर्गमूल निकाल तीन मूल लेकर यथाक्रम से उत्तर-उत्तर में स्थित राशियों का पूर्व-पूर्व राशि से गुणाकार करने पर क्रम से प्राप्त संख्या के बराबर उतनी-उतनी सूचिश्रेणि प्रमाण धर्मा (रत्नप्रभा) पृथ्वी के नारकों, भवनपति और सौधर्मकल्प के देवों का प्रमाण है। विशेषार्थ-पहली नरकपृथ्वी के नारकों तथा भवनपति और सौधर्मकल्प के देवों के प्रमाण का निर्णय करने के लिये पहले जितनी श्रेणियाँ कही हैं उतने श्रेणि-व्यतिरिक्त आकाशप्रदेशों को ग्रहण करके उनकी सूचिश्रेणि करना और उनमें से सूचिश्रेणि में रहे हुए आकाशप्रदेशों का वर्गमूल निकालने की पद्धति से मूल निकालकर उसमें से तीन मूल लेकर उन्हें तथा अंगुलमात्र सूचिश्रेणि के प्रदेशों की संख्या को अनुक्रम से स्थापित करने के बाद अंगुलमात्र सूचिश्रेणि की प्रदेशसंख्या का मूल के साथ गुणा करने पर आकाशप्रदेश की जितनी संख्या आये, उतनी संख्याप्रमाण समस्त सूचिश्रेणि के जितने आकाशप्रदेश हों, उतनी रत्नप्रभापृथ्वी के नारक जीवों की संख्या है । पहले और दूसरे मूल का गुणाकार करने पर जितने आकाशप्रदेश आयें, उतनी समस्त सूचिश्रेणि में रहे हुए आकाशप्रदेश प्रमाण भवनपति देवों की संख्या का प्रमाण है तथा दूसरे और तीसरे मूल का गुणाकार करने पर जितने आकाशप्रदेश प्राप्त हों, उतनी समस्त सूचिश्रेणिप्रमाण सौधर्मकल्प के देवों का प्रमाण है । ___ यद्यपि अंगुलप्रमाण सूचिश्रेणि में असंख्यात आकाशप्रदेश होते हैं, लेकिन असत्कल्पना से दो सौ छप्पन मान लिये जायें। उनका वर्गमूल निकालने की रीति से तीन बार मूल निकालना। दो सौ छप्पन Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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