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________________ ४८ पंचसंग्रह प्रत्येक देवलोक में सूचिश्रेणि के असंख्यातवें भाग में विद्यमान आकाशप्रदेश प्रमाण देव हैं। परन्तु यहाँ इतना विशेष समझना चाहिये कि उत्तरोत्तर सूचिश्रोणि का असंख्यातवाँ भाग अनुक्रम से हीन-हीन लेने से उपरि-उपरिवर्ती देवलोक के देव पूर्व-पूर्ववर्ती देवलोक के देवों की अपेक्षा असंख्यातवें भाग हैं। ___ इसका तात्पर्य यह हुआ कि सनत्कुमारकल्प के जितने देव हैं, उसकी अपेक्षा माहेन्द्रकल्प में देव असंख्यातवें भाग हैं और माहेन्द्र देवलोक के देवों से सनत्कुमार के देव असंख्यातगुणे हैं। माहेन्द्र देवलोक के देवों की अपेक्षा ब्रह्म देवलोक के देव असंख्यातवें भाग हैं । इसी तरह उत्तरोत्तर लांतक, महाशुक्र और सहस्रार देवलोक के देवों के लिये भी जान लेना चाहिये। इसके अलावा___ गाथा के अन्त में 'तह य',पद में आगत 'य-च' शब्द अनुक्त वस्तु का समुच्चय करने वाला होने से आनत, प्राणत, आरण और अच्युत देवलोक में तथा अधः, मध्यम और उपरितन तीन-तीन ग्रैवेयक और अनुत्तर विमानों में से प्रत्येक में क्षेत्रपल्योपम के असंख्यातवें भागवर्ती आकाशप्रदेश प्रमाण देव जानना चाहिए। किन्तु इतना विशेष है कि पूर्व-पूर्व देवों की अपेक्षा उत्तर-उत्तर के देव संख्यातगुणहीन हैं।' १ (अ) देवों आदि में हीनाधिकतादर्शक प्रज्ञापनासूत्रगत महादंडक का पाठ परिशिष्ट में देखिये। (आ) गोम्मटसार जीवकांड, गाथा १६१, १६२, १६३ में वैमानिक देवों ___ की संख्या इस प्रकार बतलाई है। जगत्-श्रोणि के साथ धनांगुल के तृतीय वर्गमूल का गुणा करने पर सौधर्मद्विक के देवों का प्रमाण प्राप्त होता है तथा इसके आगे जगत्-श्रोणि के ग्यारहवें, नौवें, सातवें, पांचवें, चौथे वर्गमूल से भाजित जगत्-श्रेणि प्रमाण तीसरे कल्प से लेकर बारहवें कल्प तक देवों का प्रमाण है। (क्रमश:) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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