SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६ ४७ अब तीन देवनिकायों से शेष रहे वैमानिक देवों का प्रमाण बतलाते हैं। वैमानिक देवों का प्रमाण असखसेढिखपएसतुल्लया पढमदुइयकप्पेसु। सेढि असंखंससमा उर्वारं तु जहोत्तरं तह य ॥१६॥ शब्दार्थ---असंखसेढिखपएसतुल्लया-असंख्यात श्रोणि के आकाशप्रदेश तुल्य, पढमदुइय-प्रथम और द्वितीय, कप्पेसु-कल्पों के, सेढि-श्रेणि, असंखंससमा-असंख्यातवें भागप्रमाण, उरि-ऊपर के, तु-और, जहोत्तरं-यथोत्तर के क्रम से, तह-तथाप्रकार से, वैसे-वैसे, पूर्व-पूर्व से, यऔर। गाथार्थ असंख्यातो श्रोणि के आकाशप्रदेश तुल्य प्रथम और द्वितीय कल्प (देवलोक) के देव हैं तथा यथोत्तर के क्रन से ऊपर के देवलोक के देव पूर्व-पूर्व से श्रेणि के असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। विशेषार्थ-गाथा में पहले और दूसरे कल्प के वैमानिक देवों का प्रमाण तो निश्चित रूप में बतलाया है और शेष उत्तरवर्ती देवों के प्रमाण के लिये सामान्य संकेत कर दिया है कि पूर्व की अपेक्षा उत्तरवर्ती वैमानिक देव श्रेणि के असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है__घनीकृत लोक की सात राजूप्रमाण लम्बी और एक प्रदेश मोटीचौड़ी असंख्याती सूचिश्रोणि में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उतने पहले और दूसरे--सौधर्म और ईशान देवलोक में देव हैं तथा ऊपर के सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लांतक, महाशुक्र और सहस्रार, इनमें से १ गोम्मटसार जीवकांड गाथा १६१ में सौधर्म द्विक-सौधर्म और ईशान स्वर्ग के देवों का प्रमाण इस प्रकार बतलाया है___ जगत्-अं णि के साथ घनांगुल के तृतीय वर्गमूल का गुणा करने पर . सौधर्म और ईशान स्वर्ग के देवों का प्रमाण प्राप्त होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy