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पंचसंग्रह __ इस प्रकार से एकेन्द्रियों की संख्या बतलाने के बाद अब विकलेन्द्रियों और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जोवों की संख्या बतलाते हैं---
पजत्तापजत्ता बितिचउ असन्निणो अवहरंति ।
अंगुल-संखासंखप्पएसभइयं पुढो पयरं ॥१२॥ शब्दार्थ-पजत्तापजत्ता-पर्याप्त, अपर्याप्त, बितिचउ असन्निणोद्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय, अवहरंति-अपहार करते हैं, अंगुल संखासंखप्पएस-अंगुल के संख्यातवें और असंख्यातवें भाग प्रदेश से, भइयं-विभाजित, पुढो–(पृथक् ) प्रत्येक, पयरं-प्रतर ।
गाथार्थ-पर्याप्त, अपर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय, ये प्रत्येक जीव अनुक्रम से अंगुल के संख्यातवें
और असंख्यातवें भाग द्वारा विभाजित प्रतर का अपहार करते हैं। विशेषार्थ--द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रियये प्रत्येक पर्याप्त और अपर्याप्त जोव अनुक्रम से अंगुल के संख्यातवें और असंख्यातवें भाग में रहे हुए आकाशप्रदेश द्वारा विभाजित करते हुए सम्पूर्ण प्रतर का अपहार करते हैं । जिसका विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है___ समस्त पर्याप्त द्वीन्द्रिय जीव एक साथ यदि अंगुलमात्र क्षेत्र के संख्यातवें भाग प्रमाण प्रतर के खण्ड का अपहार करें तो वे समस्त द्वीन्द्रिय जीव एक ही समय में सम्पूर्ण प्रतर का अपहार करते हैं । तात्पर्य यह हुआ कि सात राजूप्रमाण धनोकृत लोक के एक प्रतर के अंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण जितने खण्ड हों, उतने पर्याप्त द्वीन्द्रिय जीव हैं। __ इसी प्रकार पर्याप्त त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के लिये भी समझना चाहिये। ___ अब अपर्याप्त विकलेन्द्रियों और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों का प्रमाण बतलाते हैं कि एक प्रेतर के अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण जितने खण्ड हों, उतने अपर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रोन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी
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