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________________ बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गांथा ११ ३७ के जीव असंख्यातगुणे हैं' और उनसे 'सेसतिगमसंखिया लोगा' - शेष त्रिक ( तीन ) असंख्यात लोकाकाशप्रदेश प्रमाण हैं । यहाँ शेषत्रिक से अपर्याप्त बादर और अपर्याप्त, पर्याप्त सूक्ष्म का ग्रहण समझना चाहिये । जिसका यह अर्थ हुआ कि अपर्याप्त बादर पृथ्वी, जल, तेज और वायु तथा पर्याप्त, अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी, जल, तेज और वायु, ये प्रत्येक प्रकार के जीव असंख्य लोकाकाश में विद्यमान आकाशप्रदेश प्रमाण हैं । इस प्रकार पूर्वोक्त राशित्रिक का सामान्य से अल्पबहुत्व जानना चाहिये । यदि उक्त राशित्रिक का स्वस्थान में विशेषापेक्षा अल्पबहुत्व का विचार करें तो वह इस प्रकार हैं- अपर्याप्त बादर सबसे अल्प हैं, उनसे अपर्याप्त सूक्ष्म असंख्यातगुण हैं, उनसे पर्याप्त सूक्ष्म संख्यातगुण हैं । शेषत्रिक का ग्रहण उपलक्षण सूचक है । अतः उसका यह अर्थ समझना चाहिये कि अपर्याप्त बादर प्रत्येक वनस्पतिकाय भी असंख्यात लोकाकाशप्रदेश प्रमाण हैं तथा यह पहले कहा जा चुका है कि साधारण वनस्पतिकाय के सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त ये चारों भेद वाले जीव सामान्यतः अनन्त लोकाकाशप्रदेश प्रमाण हैं तथा विशेषतः विचार करने पर उनका अल्पबहुत्व इस प्रकार जानना चाहिये कि बादर पर्याप्त साधारण जीव अल्प हैं, उनसे बादर अपर्याप्त साधारण असंख्यातगुणे, उनसे सूक्ष्म अपर्याप्त साधारण असंख्यातगुणे हैं और उनसे पर्याप्त सूक्ष्म साधारण संख्यातगुणे हैं । १ बादर पर्याप्त तेजस्काय के जीव अल्प होने का कारण उनका सद्भाव मात्र ढाई द्वीप में ही है और वायुकाय के जीवों के सबसे अधिक होने का कारण क्षेत्र की विपुलता है । लोक के समस्त क्षेत्र में वायुकाय के जीव हैं । दिगम्बर साहित्य में बताये गये स्थावर जीवों के प्रमाण को परिशिष्ट में देखिये | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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