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पंचसंग्रह के घटित होता है, अन्यत्र घटित नहीं होता है। वह भंग इस प्रकार है-औदयिक-औपशमिक-क्षायिक-क्षायोपशामिक-पारिणामिक। उसमें औदयिक भाव में मनुष्य गति आदि, औपशामिक भाव में चारित्र, क्षायिक भाव में सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक भाव में मतिज्ञानादि और पारिणामिक भाव में जीवत्व और भव्यत्व होता है।
इस प्रकार अवान्तर भंगों के भेदों की अपेक्षा से कुल पन्द्रह भेद घटित होते हैं ।' इन पन्द्रह भंगों की अपेक्षा से द्विक, त्रिक, चतुष्क और पंचक रूप सान्निपातिक भाव युक्त जीव होते हैं । इसी का गाथा में संकेत किया है कि-'दुगतिगचउपंचमीसेहिं'-दो, तीन, चार, पांच भाव से युक्त जीव हैं। . इस प्रकार से भावों का स्वरूप, उनके द्विक आदि के संयोग से होने वाले भंग एवं कौन-कौन से भंग किस प्रकार घटित होते हैं, यह बतलाने के बाद अब पूर्व में जो 'कत्थ ? सरीरे लोए व' जीव कहाँ रहते हैं ? और इस प्रश्न के उत्तर में जीव शरीर में रहते हैं, यह कहा था तो चतुर्गति के जोवों में से जिसके जितने शरीर संभव हैं, उसका वर्णन करते हैं। संसारी जीवों में संभव शरीर
सुरनेरइया तिसु तिसु वाउपणिदीतिरक्ख चउ चउसु ।
मणुया पंचसु सेसा तिसु तणुसु अविग्गहा सिद्धा ॥४॥ सान्निपतिक भावों के पन्द्रह भंग इस प्रकार से घटित होते हैं-औदयिकक्षायोपशामिक-पारिणामिक यह एक भंग चार गति के भेद से चार प्रकार का है। इन तीन के साथ क्षायिक भाव को जोड़ने पर चतुःसंयोगी भंग के भी चार भेद होते हैं । अथवा क्षायिक के स्थान पर उपशम को जोड़ने पर भी चार गति के भेद से चार भेद होते हैं । इस प्रकार बारह भेद हुए। इनमें उपशमणि का पंचसंयोगी एक भंग, केवलि भगवान् का त्रिकसंयोगी एक भंग और सिद्ध का द्विकसंयोगी एक भंग। इन सबका कुल जोड़ पन्द्रह (१२+१+१+१=१५) होता है।
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