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बंधक - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४
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शब्दार्थ - सुरनेरइया - देव और नाक, तिसु-तिसु— तीन-तीन में, वाउ – वायुकायिक, पणिदी-पंचेन्द्रिय, तिरक्ख-तिर्यंच, चउ-चउसु चारचार में, मणुया - मनुष्य, पंचसु पांच में, सेसा – शेष जीव, तिसु-तीन, तणुसु - शरीर में, अविग्गहा - अशरीरी, सिद्धा - सिद्ध ।
गाथार्थ - देव और नारक तीन-तीन शरीर में, वायुकायिक और पंचेन्द्रिय तिर्यंच चार-चार शरीर में, मनुष्य पांच शरीर में और शेष जीव तीन शरीर में होते हैं । सिद्ध अशरीरी हैं ।
विशेषार्थ - 'सुरनेरइया तिसु-तिसु' अर्थात् देव और नारक तीनतीन शरीर में होते हैं, यानि उनके तीन शरीर होते हैं । वे तीन शरीर इस प्रकार हैं - तेजस, कार्मण और वैक्रिय । इनमें से तैजस और कार्मण तो अनादिकाल से सभी संसारी जीवों में होते ही हैं ।' अतः वे तो होंगे ही तथा देव और नारकों का भवधारणीय शरीर वैक्रिय है । इसीलिये देव और नारकों के तैजस, कार्मण और वैक्रिय यह तीन शरीर होते हैं ।
वायुकायिक और गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के पूर्वोक्त तीन शरीरों के साथ चौथा औदारिक शरीर मिलाने से चार-चार शरीर होते हैं । तेजस और कार्मण तो सामान्य हैं ही तथा इनका भवधारणीय शरीर औदारिक होता है तथा वैक्रिय शरीर वैक्रियलब्धिसम्पन्न वायुकायिक जीवों और गर्भज तिर्यंचों में पाया जाता है । इसीलिये वायुकायिक जीवों और गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में चार-चार शरीर होते हैं- 'वाउपणिदीतिरक्ख चउ-चउसु' ।
मनुष्यों के पांच शरीर होते हैं । उनमें से वैक्रिय शरीर वैक्रियलब्धि वालों के और आहारक शरीर आहारकलब्धिसम्पन्न चतुर्दश पूर्वधर को होता है तथा औदारिक, तेजस और कार्मण ये तीन शरीर
१ अनादिसम्बन्धे च । सर्वस्य । २ वैकियमोपपातिकम् ।
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- तत्त्वार्थसूत्र २/४२,४३ —तत्त्वार्थसूत्र २/४७
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