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________________ बधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २-३ के दो आदि के संयोग से उत्पन्न हुई अवस्था विशेष को सान्निपातिक कहते हैं।' पांच भावों के २६ भंग-किसी भी जीव में एक भाव नहीं होता है, किन्तु दो, तीन, चार या पाँच भाव होते हैं। इन पांचों भावों के सामान्य से द्विकादि के संयोग में छब्बीस भंग होते हैं। जो इस प्रकार जानना चाहिये कि दो के संयोग के दस, तीन के संयोग के दस, चार के संयोग के पांच और पांच के संयोग का एक । __दो आदि के संयोग से निष्पन्न भंग इस प्रकार हैं दो के संयोग से निष्पन्न दस भंग-१. औदयिक-औपशमिक, २. औदयिक क्षायिक, ३. औदयिक-क्षायोपशमिक, ४. औदयिक पारिणामिक, ५. औपशमिक-क्षायिक, ६. औपशमिक-क्षायोपशमिक, ७. औपशमिक-पारिणामिक, ८. क्षायिक-क्षायोपशमिक, ६. क्षायिकपारिणामिक, १०. क्षायोपशमिक-पारिणामिक । तीन के संयोग से बनने वाले दस भंग-१. औदयिक-क्षायोपशमिक-क्षायिक, २. औदयिक-औपश मिक-क्षायोपशमिक, ३. औदयिक१ जब विवक्षित पदार्थ के अनेक भेद होते हैं और उन भेदों में कभी किसी एक का, कभी दो का यावत् कभी प्रत्येक भेद का विचार करना हो तब उस पदार्थ के एक-एक भेद, दो-दो भेद, तीन-तीन भेद की अपेक्षा, इस प्रकार उस पदार्थ के जितने भेद होते हैं, वहाँ तक उनके जो भंग बनाये जाते हैं वे भंग अनुक्रम से एकसंयोगी, द्विसंयोगी, त्रिसंयोगी आदि नाम से जाने जाते हैं। दिगम्बर साहित्य में भी इसी प्रकार से सान्निपातिक भाव द्विसंयोगी, तीन, चार तथा पांच संयोगी क्रम से दस, दस, पाँच तथा एक, इस प्रकार छब्बीस बतलाये हैं। लेकिन विस्तार से इकतालीस भंगों का भी निर्देश किया है। इन इकतालीस भंगों में द्विकसयोगी भंग दस की बजाय पच्चीस बतलाये हैं । शेष भंगों की संख्या में अन्तर नहीं है । -देखिये, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ४/३१३ । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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