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________________ १६ पंचसंग्रह पूर्वक उत्तर अवस्था को प्राप्त करना परिणाम कहलाता है और परिणाम को हो पारिणामिक भाव कहते हैं । पारिणामिक भाव के दो भेद हैं- सादि और अनादि । घी, गुड़, चावल, आसव और घटादि पदार्थों की नई-पुरानी आदि अवस्थायें तथा वर्षधरपर्वत, भवन, विमान, कूट और रत्नप्रभा आदि पृथिवियों की पुद्गलों के मिलने-बिखरने के द्वारा होने वाली अवस्थायें तथा गंधर्वनगर, उल्कापात, धूमस, दिग्दाह, विद्युत, चन्द्रपरिवेष, सूर्यपरिवेष, चन्द्र-सूर्यग्रहण, इन्द्रधनुष इत्यादि अनेक अवस्थायें सादि पारिणामिक भाव हैं। क्योंकि उस उस प्रकार के परिणाम अमुक-अमुक समय होते हैं और उनका नाश होता है । अथवा उनमें पुद्गलों के मिलने-बिखरने से हीनाधिक्य - फेरफार हुआ करते हैं । लोकस्थिति, अलोकस्थिति, भव्यत्व, अभव्यत्व, जीवत्व, धर्मास्तिकायत्व इत्यादि रूप जो भाव हैं, वे अनादि पारिणामिक भाव हैं । क्योंकि उनके स्वरूप में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता है । सदैव अपने-अपने स्वरूप में ही रहते हैं । ये औपशमिक आदि पूर्वोक्त पांच मूल भाव हैं। इनके संयोग से बनने वाले छठे भाव का नाम सान्निपातिक है ।" यह स्वतन्त्र भाव नहीं है, किन्तु संयोग भंग की अपेक्षा इसका ग्रहण किया जाता है । सान्निपातिक भाव - अनेक भावों के मिलने से निष्पन्न भाव को सान्निपातिक भाव कहते हैं । तात्पर्य यह है कि औदयिक आदि भावों १ यह विचार अनुयोगद्वारसूत्र में, तत्त्वार्थसूत्र अ. २ के १ से ७ तक के सूत्र में, सूत्रकृतांग नियुक्ति की गाथा १०७ तथा उसकी टीका में भी किया गया है तथा गोम्मटसार कर्मकाण्ड में इस विषय का 'भावचूलिका' नामक एक स्वतन्त्र प्रकरण है । भावों के भेद-प्रभेद के लिये ८१२ से ८१६ तक की गाथायें द्रष्टव्य हैं और आगे की गाथाओं में कई तरह के भंग जाल बतलाये हैं । इन सबके लिये भावचूलिका प्रकरण गाथा ८१२ से ८७५ तक देखना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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