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________________ बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २-३ आत्मा का जो परिणामविशेष उसे क्षयोपशमनिष्पन्न कहते हैं। यह क्षयोपशमनिष्पन्न अनेक प्रकार का है, यथा-क्षायोपशामिक आभिनिबोधिवज्ञानलब्धि, श्रुतज्ञानलब्धि, अवधिज्ञानलब्धि, मनपर्यायज्ञानलब्धि, क्षायोपशमिक मतिअज्ञानलब्धि, श्रुतअज्ञानलब्धि, विभंगज्ञानलब्धि, सम्यग्दर्शनलब्धि, क्षायोपशमिक सम्यग्मिथ्यादर्शनलब्धि', क्षायोपशमिक सामायिकलब्धि, क्षायोपशमिक छेदोपस्थापनीयलब्धि, क्षायोपशमिक परिहारविशुद्धिलब्धि, क्षायोपशमिक सूक्ष्मसंपरायलब्धि, क्षायोपशमिक देशविरतिलब्धि, क्षायोपशमिक दानलब्धि, लाभलब्धि, भोगल ब्धि, उपभोगलब्धि, वीर्यलब्धि, पंडितवीर्यलब्धि, बालवीर्यलब्धि, बालपंडितवीर्यलब्धिः, श्रोत्रेन्द्रियलब्धि, चक्षरिन्द्रियलब्धि, घ्राणेन्द्रियलब्धि, रसनेन्द्रियलब्धि, स्पर्शनेन्द्रियलब्धि इत्यादि । ये सभी भाव घाति कर्म के क्षयोपशम से निष्पन्न होने के कारण क्षयोपशमनिष्पन्न कहलाते हैं। (५) पारिणामिक भाव---परिणमित होना-अवस्थित वस्तु का पूर्व अवस्था के त्याग करने के द्वारा उत्तर अवस्था को कथंचित् प्राप्त होना अर्थात् अपने मूल स्वभाव को छोड़े बिना पूर्व अवस्था के त्याग १ मिथ्यात्व का उदय नहीं होने से यहाँ सम्यमिथ्यादर्शनलब्धि को गिना है। २ मिथ्यात्वी जीव के वीर्यव्यापार को बालवीर्य, सम्यक्त्वी और देश विरति के वीर्यव्यापार को बालपंडितवीर्य और सर्वविरति के वीर्यव्यापार को पंडितवीर्य-लब्धि कहा जाता है। इन सभी लब्धियों का सामान्य से वीर्यलब्धि में समावेश हो जाता है, किन्तु स्पष्टता के लिये अलग-अलग उल्लेख किया है। ३ इन श्रोत्रेन्द्रियल ब्धि आदि पांच इन्द्रियल ब्धियों का मतिज्ञानलब्धि में समावेश हो जाता है। किन्तु स्पष्टता के लिये यहाँ पृथक्-पृथक् उल्लेख है। ४ पारिणामिक भाव का कारण द्रव्य का स्वरूपलाभ मात्र है। इसमें कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम की अपेक्षा नहीं होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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