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________________ पंचसंग्रह कर्माश के विपाकाश्रयी उपशम को क्षयोपशम' कहते हैं। यह क्षयोपशम ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार घाति कर्मों का ही होता है, अघाति कर्मों का नहीं होता है । क्षयोपशम ही क्षायोपशमिक कहलाता है। घाति कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न हुआ मतिज्ञानादि लब्धिरूप १ उदयप्राप्त कर्मों के क्षय और उदय में नहीं आये हुओं के उपशम को क्षयोपशम कहते हैं। यहाँ उपशम शब्द के दो अर्थ करना चाहिये---- १ उपशम यानी उदयप्राप्त कर्म का क्षय और सत्तागत कर्म को परिणामानुसार हीन शक्ति वाला करके ऐसी स्थिति में स्थित करना कि स्वरूप से फल न दे। यह अर्थ मोहनीय कर्म में घटित होता है। मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधि आदि बारह कषायों का क्षयोपशम होता है, तब उनके उदयप्राप्त अंशों का क्षय करता है और सत्तागत अंश को परिणामानुसार हीन शक्ति वाला करके ऐसी स्थिति में रखता है कि स्वरूपतः फल न दे । तभी सम्यक्त्व, देशविरति और सर्वविरति चारित्ररूप गुण उत्पन्न होते हैं। उपशम का दूसरा अर्थ-उदयप्राप्त अंश का क्षय और उदय-अप्राप्त अंश को परिणामानुसार हीनशक्ति वाला करना । यह अर्थ शेष तीन घाति कर्मों में घटित होता है । उनके उदय प्राप्त अंश का क्षय और उदयअप्राप्त अंश को परिणामानुसार हीनशक्ति वाला करता है। स्वरूपतः फल न दे सकें ऐसी स्थिति में स्थित नहीं किये होने से उनका रसोदय भी होता है । किन्तु शक्तिहीन किये गये होने से गुण के विघातक नहीं होते हैं । जितने प्रमाण में उनकी शक्ति कम हो गई है, तदनुरूप मतिज्ञान आदि गुण प्रगट होते हैं। इसीलिये इन तीन कर्मों का उदयानुविद्ध क्षयोपशम कहा जाता है। २ अघाति कम किसी गुण को आच्छादित नहीं करते, जिससे उनका क्षयोप शम नहीं होता। वे तो अधिक रस और अधिक स्थितिवाले हों तभी अपना कार्य कर सकते हैं। इसीलिये अघाती कर्मों का क्षयोपशम नहीं हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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