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________________ बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २-३ और २. उपशमनिष्पन्न । उनमें से राख से आच्छादित अग्नि की तरह कर्म की सर्वथा अनुदयावस्था, अर्थात् प्रदेश से भी जिसके उदय का अभाव हो, उसे उपशम कहते हैं । कर्म को ऐसी स्थिति में स्थापित कर देना कि वह रस से अथवा प्रदेश से भी अपना विपाक वेदन न करा सके, वह उपशम है। इस प्रकार के उपशम को सर्वोपशम कहते हैं । जो मोहनीयकर्म का ही होता है, किन्तु दूसरे किसी कर्म का नहीं होता है। ___ कर्म के सर्वथा उपशम द्वारा उत्पन्न जीवस्वभाव को उपशमनिष्पन्न कहते हैं । जो क्रोधादि कषायों के उदय का सर्वथा अभाव होने से उसके फलरूप में उत्पन्न हुआ परम शांत अवस्था रूप जीव का परिणामविशेष है। ___यह औपशमिक भाव अनेक प्रकार का है, यथा--उपशांत वेद, उपशांत क्रोध, उपशांत मान, उपशांत माया, उपशांत लोभ, उपशांत दर्शनमोहनीय, उपशांत चारित्रमोहनीय आदि । (३) क्षायिक भाव-इसके दो भेद हैं-क्षय और क्षयनिष्पन्न । कर्म के सर्वथा अभाव को क्षय कहते हैं और यही क्षय क्षायिक है। कर्मों के सर्वथा अभाव होने के फलरूप में उत्पन्न हुआ जीव का परिणामविशेष क्षयनिष्पन्न कहलाता है, यथा-केवलज्ञानित्व, केवलदर्शनित्व, क्षीणमतिज्ञानावर णत्व, क्षीणश्रुतज्ञानावरणत्व, क्षीणअवधिज्ञानावरणत्व, क्षीणमनःपर्ययज्ञानावर णत्व यावत् क्षीणवीर्यान्तरायत्व और मुक्तत्व । ये सभी भाव कर्मावरण का सर्वथा नाश होने के फलरूप में उत्पन्न हुए हैं, जिससे ये क्षयनिष्पन्न कहलाते हैं। (४) क्षायोपशमिक भाव-यह दो प्रकार का है-क्षयोपशम और क्षयोपशमनिष्पन्न । उदयप्राप्त कर्मांश के क्षय और अनुदयप्राप्त १ सब्बुवसमणा मोहस्सेव । -कम्मपयडी, उपशमना प्रकरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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