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________________ पंचसंग्रह कर्मों के उदय द्वारा उत्पन्न हुआ जीव का स्वभाव उदयनिष्पन्न कहलाता है। उदय निष्पन्न के दो भेद हैं- (१) जीवविषयक (२) अजीवविषयक ।' उनमें से नरकगति आदि कर्म के उदय से उत्पन्न हुए नारकत्वादि पर्याय के परिणाम को जीवविषयक औदयिक भाव कहते हैं। क्योंकि नारकत्वादि जीव के भावों-पर्यायों ने नरकगति आदि कर्मों के उदय से सत्ता प्राप्त की है, किन्तु वे स्वाभाविक नहीं हैं। ___ जीवोदयनिष्पन्न औदयिक भाव के अनेक भेद हैं, यथा-नारकत्व, तिर्यंचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व, पृथ्वीकायत्व, अप्कायत्व, तैजस्कायत्व, वायुकायत्व, वनस्पतिकायत्व, त्रसकायत्व, क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायो, लोभकषायी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदो, नपुसकवेदी, कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या, मिथ्यादृष्टित्व, अविरतित्व, अज्ञानित्व, आहारकत्व, छद्मस्थभाव, सयोगित्व और संसारावस्था आदि । ये सभी भाव जीव के कर्मों के उदय से उत्पन्न होने के कारण जीवोदयनिष्पन्न कहलाते हैं। अजीवोदय निष्पन्न यानि जीव द्वारा ग्रहण किये गये औदारिक आदि शरीर में कर्म के उदय से उत्पन्न हुए वर्णादि परिणाम अजीवोदयनिष्पन्न औदयिक भाव हैं। जिसका स्पष्ट आशय यह है कि औदारिक आदि शरीरयोग्य पुद्गलों का उस-उस शरीररूप में परिणाम तथा शरीर में वर्ण, गंध, रस और स्पर्शरूप परिणाम, यह सब कर्म के उदय बिना नहीं होता है, जिससे ये अजीवोदयनिष्पन्न औदयिक भाव कहलाते हैं। (२) औपशमिक भाव-औपशमिक भाव के दो भेद हैं-१. उपशम १ से किं तं उदयनि प्फन्ने ? तं दुविहे पन्नत्ते तं जहा---जीवोदयनिप्फन्ने अजीवोदयनिप्फन्ने य । __-अनुयोगद्वारसूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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