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________________ पंचसंग्रह स्वामी हैं, सभी के गुण समान हैं। उनमें किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। इसीलिये तथास्वभाव से अपने स्वरूप के ही स्वयं स्वामी हैं । ३. जीव को किसने बनाया है ?-यह तीसरा प्रश्न है। जिसका उत्तर है-'न केणइ कया'-जीव को किसी ने नहीं बनाया है, किन्तु आकाश की तरह अकृत्रिम है और अपने स्वाभाविक स्वरूप में अवस्थित है। यह नियम है कि उत्पन्न हुई वस्तु का अवश्य नाश होता है। इसलिये यदि जीव को उत्पन्न हुआ माना जाये तो उसका भी नाश होना चाहिये । परन्तु उसका किसी भी समय नाश नहीं होने से वह अकृत्रिम है । ४. जीव कहाँ रहते हैं ?-इस चौथे प्रश्न का उत्तर यह है कि 'सरीरे लोएव हुति'-जीव अपने-अपने शरीर में अथवा लोक में रहते हैं। इस उत्तर में सामान्य और विशेषापेक्षा जोव के अवस्थान का विचार किया गया है। उनमें से सामान्य की अपेक्षा विचार करते हुए बताया कि जीव लोक में रहते हैं, अलोक में नहीं; चाहे वे बन्धक हों या अबन्धक हों । इसका कारण यह है कि तथास्वभाव से धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीव और पुद्गलों का अलोक में अभाव है। लेकिन विशेषापेक्षा विचार करने पर प्रत्येक जीव यथायोग्य प्राप्त अपने-अपने औदारिक आदि शरीर में रहता है, अपने शरीर से बाहर नहीं रहता है। क्योंकि शरीर के परमाणुओं के साथ आत्मप्रदेशों का नीरक्षीरवत् अन्योन्यागमरूप परस्पर एकाकार सम्बन्ध है। इसका कारण यह है कि जीव और पुद्गल अन्योन्यागम के कारण परस्पर ऐसे एकाकार रूप से रहे हुए हैं कि उनमें यह जीव है और यह शरीरपुद्गल हैं, ऐसा विभाग नहीं हो सकता है । जैसे कि पानी और दूध १ एतद्विषयक सविस्तृत विचार धर्मसंग्रहणी की टीका में किया गया है । विस्तारभय से यहाँ संक्षेप में संकेतमात्र किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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