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बंधक - प्ररूपणा अधिकार : गाथा २-३
जोव की स्वरूप - व्याख्या में भावों के क्रमविन्यास पर शंकाकार की शंका है कि
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शंका- आपका यह क्रमविन्यास अयुक्त है । क्योंकि औदयिक भाव निगोद से लेकर सभी संसारी जीवों के होता है और औपशमिक तो कितनों को ही होता है । अतः औदयिक भाव को छोड़कर प्रथम औपशमिक भाव को ग्रहण करने का क्या कारण है ?
उत्तर - वस्तु का ऐसा स्वरूप बतलाना चाहिए जो असाधारण हो, जिससे उसकी अन्य से व्यावृत्ति की जा सके, उसकी पृथक्ता समझी जा सके । इसी हेतु से जीव का स्वरूप बतलाने के आरम्भ में औदयिक को ग्रहण न करके औपशमिक भाव का विन्यास किया है । जिसका आशय यह है कि औदयिक और पारिणामिक ये दो भाव तो अजीव द्रव्य में भी पाये जाते हैं, इसीलिये उन भावों को प्रारम्भ में ग्रहण नहीं किया है। क्षायिक भाव औपशमिक भावपूर्वक ही होता है, क्योंकि कोई भी जोव उपशम भाव को प्राप्त किये बिना क्षायिक भाव को प्राप्त करता ही नहीं है । इसका कारण यह है कि अनादि मिथ्यादृष्टि जीव जब भी सम्यक्त्व की प्राप्ति करता है तो उपशम सम्यक्त्व को ही प्राप्त करता है, इसीलिये उसे ( क्षायिक को ) भी प्रारम्भ में नहीं रखा है। क्षायोपशमिक भाव औपशमिक भाव से अत्यन्त भिन्न नहीं है, इस कारण प्रारम्भ में औपशमिक भाव ग्रहण किया है ।
इस प्रकार से जीव का स्वरूप बतलाने के पश्चात् अब दूसरे प्रश्न पर विचार करते हैं
२. जीव किसका प्रभु - स्वामी है ? तो इसका उत्तर यह है कि 'सरूवस्स पहू'- जीव अपने स्वरूप का ही स्वामी है । यह कथन निश्चयनय की अपेक्षा से समझना चाहिये । क्योंकि संसार में जो स्वामी सेवकभाव दिखता है, वह कर्मरूप उपाधिजन्य होने के कारण औपाधिक है, वास्तविक नहीं । किन्तु कर्मों से मुक्त हुए जोवोंआत्माओं में स्वामी सेवकभाव नहीं है । कोई किसी का स्वामी नहीं और न कोई किसी का सेवक है । सभी मुक्त जीव अपने स्वरूप के
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