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________________ पंचसंग्रह विशेषार्थ-ग्रंथकार आचार्य ने इन दो गाथाओं में जीव के स्वरूप को समझाया है और सरलता से समझाने के लिये प्रश्नोत्तर शैली का अनुसरण किया है। समग्र रूप से जीव का स्वरूप समझने के प्रसंग में जो प्रश्न हो सकते हैं, वे इस प्रकार हैं १. जीव क्या है अर्थात् जीव का स्वरूप क्या है ? २. जीव किसका प्रभु-स्वामी है ? ३. जीव को किसने बनाया है ? ४. जीव कहाँ रहते हैं ? ५. जीव कितने काल तक जीव के रूप में रहेंगे ? ६. जीव उपशमादि कितने भावों से युक्त होते हैं ? उक्त छह प्रश्नों का विवेचन इस प्रकार है १. जीव क्या है ?- स्वरूप-बोध के अनन्तर ही वस्तु का विशेष विचार किया जाना शक्य होने से जीव का स्वरूप समझने के लिये जिज्ञासु ने पहला प्रश्न पूछा है कि जीवा ?' जोव क्या है --जीव का स्वरूप क्या है ? प्रत्युत्तर में आचार्य बतलाते हैं --- 'उवसमाइएहि भावेहिं संजुयं दव्वं'-अर्थात् औपशामिक, औदयिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक भावों से युक्त जो द्रव्य है। वह जीव है। इसका आशय यह है कि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप द्रव्य का लक्षण पाये जाने से जीव द्रव्य तो है ही क्योंकि प्रत्येक द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है, यही द्रव्य का लक्षण है।' लेकिन साथ ही जीव की यह विशेषता है कि वह औपशमिक, औदयिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक भावों से युक्त द्रव्य है । १ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक वस्तु । -विशेषावश्यक भाष्य, पृ. ८१२ २ जीव का स्वरूप उपयोगात्मक है। लेकिन यहाँ कर्मजन्य अवस्थाओं और मूलस्वभाव को बतलाने की मुख्यता से औपशमिक आदि पांच भावों को जीव का स्वरूप बतलाया है'औपशमिकादिभावपर्यायो जीवः पर्यायादेशात् । पारिणामिकभावसाधनो निश्चयतः ।' -~-तत्त्वार्थ राजवार्तिक १/७/३,८ अन्धासाधारणा भावा: पञ्चौपशमिकादयः । स्वतत्त्वं यस्य तत्त्वस्य जीवः स व्यपदिश्यते ।। --तत्त्वार्थसार २/२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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