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________________ पंचसंग्रह प्ररूपणा आदि द्वारों के द्वारा यथावत् रूप से समझने योग्य हैं(किमाइ संताइ पयनेया)। गाथागत 'विबन्धगा' और 'हु' यह दो पद विशेष अर्थ के द्योतक हैं । जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है...... विबन्धगा-अर्थात् चौदह प्रकार के जीवभेदों में से भी जो अंतिम भेद है-'तेसिमंतिमो भेओ' - वह पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय भेद विशेष रूप से कर्म बन्धक है। यद्यपि जब तक जीव संसार में है, तब तक कर्मबन्ध होगा, लेकिन योग और कषायों की सामर्थ्य के अनुसार ही संसारी जीव बन्ध करते हैं। संसारी जोवों में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों में ही उत्कृष्ट योग और कषाय-सामर्थ्य पाई जा सकती है, अन्य जीवों में उतनी नहीं; इसी बात का संकेत करने के लिये ग्रन्थकार आचार्य ने गाथा में 'विबन्धगा' पद दिया है तथा बहुवचन प्रयोग करने का कारण यह है कि जीव अनेक हैं और उन अनेकों में जैसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि जीव अनेक हैं, उसी प्रकार संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव भी अनेक हैं । जो अपनी योग्यता--सामर्थ्य को विशेषता के कारण ज्ञानावरण आदि आठों कर्मी का विशेष बन्ध करते हैं। हु-यह अवधारणात्मक पद है। जिसका आशय यह है कि अंतिम जीवभेद-संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवभेद में ही चौदह गुणस्थान पाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त शेष जीवभेदों में एक, दो, तीन गुणस्थान संभव हैं। जैसे कि अनादिकाल से सभी संसारी जीवों के मिथ्यादृष्टि होने से मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है। उनमें से कोई करणअपर्याप्तक दो गुणस्थान वाले होते हैं। क्योंकि सूक्ष्म एकेन्द्रिय के १ किसी भी वस्तु को समझने के प्रकार को द्वार कहते हैं। प्राचीन आचार्यों ने इन प्रकारों के लिये द्वार शब्द का प्रयोग किया है। २ हरवधारणे, किमवधारयति ? अंतिम एवं चतुर्दशधा भवन्ति, अन्ये ...त्वकद्वित्रिगुणा एव । ___--पंचसंग्रह, स्वोपज्ञवृत्ति, पृ० ४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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