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________________ ' २४ ) उत्पन्न होने रूप कायस्थिति काल और (३) किसी भी विवक्षित गुणस्थान में एक जीव के रहने रूप गुणस्थानकाल । इन तीनों प्रकारों का बहुत ही विस्तार से वर्णन किया गया है । अन्तरद्वार में विवक्षित भव की प्राप्ति के बाद पुनः काल तक प्राप्ति न हो, उतने काल का वर्णन किया है । अनेक जीवों को आधार बना कर किया है । भागद्वार और अल्पबहुत्वद्वार का वर्णन परस्पर एक दूसरे से मिलताजुलता होने से पृथक् से निर्देश न करके अल्पबहुत्वद्वार के साथ ही भागद्वार का निर्देश किया है अल्पबहुत्वद्वार में किन जीवों से कौन जीव कितने अल्प है अथवा अधिक हैं, इसको स्पष्ट किया है । भावद्वार में औपशमिक आदि पांच भावों में से किन जीवों में कौन-कौन से भाव होते हैं, इसका कथन है । यह समस्त वर्णन चौदह जीवस्थानगत एक और अनेक जीवों और गुणस्थानों को आधार बनाकर किया है। इस प्रसंग में यथास्थान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार पुद्गलपरावर्तनों और सात समुद्घातों का स्वरूप भी बतलाया है । अधिकार में कुल चौरासी गाथायें हैं और अन्तिम गाथा में विवेचन की पूर्णता का संकेत करते हुए आगे तीसरे अधिकार के वर्ण्यविषय का उल्लेख किया है । यह अधिकार का संक्षिप्त परिचय है । जांची मोहल्ला बीकानेर, ३३४००१ Jain Education International उसी भव की जितने यह वर्णन एक और For Private & Personal Use Only — देवकुमार जैन सम्पादक www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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