SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २३ ) विविध दृष्टिकोणों से प्ररूपणा की है कि वे गति, जाति आदि किन-किन रूपों में संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं, उनकी कितनी-कितनी स्थिति है, कितने समय तक एक भव में रहकर भवान्तर को प्राप्त करते हैं, उनकी भावात्मक स्थिति कैसी होती है आदि । लेकिन विस्तार से इस प्ररूपणा के दो प्रकार हैं । प्रथम प्रकार प्रश्नोत्तर रूप है । वे प्रश्न हैं कि जीव क्या है ? जीव किसका स्वामी है ? जीव को किसने बनाया है ? जीव कहाँ रहता है ? जीव कितने काल तक रहने वाला है ? और जीव कितने और कौन-कौन से भावों से युक्त है ? इन छह प्रश्नों द्वारा जीव के स्वतन्त्र अस्तित्व, अनादि-अनिधन मौलिक स्वरूप की व्याख्या की है। इस व्याख्या के द्वारा भूतचैतन्यवाद का निराकरण किया गया है। भूतचैतन्यवादी जीव के स्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते हैं पर पृथ्वी, जल आदि के संयोगसम्बन्ध से उत्पन्न और उनमें विकृति आने पर नाश होना मानते हैं आदि । अब जीव का स्वतन्त्र, मौलिक और अनादि-अनिधन अस्तित्व सिद्ध हो गया तब सत्पदप्ररूपणा, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्र, स्पर्शना, काल, अन्तर, भाग, भाव और अल्पबहुत्व रूप प्ररूपणा के दूसरे प्रकार द्वारा बंधक जीवों का विस्तार से वर्णन किया है। नरकादि गति, एकेन्द्रियादि जाति, पृथ्वी आदि काय, पर्याप्त, अपर्याप्त, सूक्ष्म, बादर, संज्ञी-असंज्ञी आदि जीवों के रहने का विचार सत्पदप्ररूपणा में किया गया है। जीव द्रव्य है अतएव जीवों की संख्या का प्रमाण द्रव्यप्रमाण द्वारा बतलाया है। __ जीव कितने क्षेत्र को व्याप्त करके रहता है, इसका वर्णन क्षेत्रद्वार में किया है। जीवभेदों में से कौन कितने क्षेत्र का स्पर्श कर सकता है, अर्थात् उनके पहुंचने की क्षेत्रसीमा क्या है ? यह वर्णन स्पर्शनाद्वार में किया है। कालद्वार के विवेचन के तीन रूप हैं-(१) एक भव की आयु रूप भवस्थिति काल, (२) मरकर बारम्बार पृथ्वीकायादि विवक्षित उसी काय में पुनः पुनः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy