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________________ ( २१ ) जैनदर्शन ने जगत को अकृत्रिम और अनादि बताया है । इसीलिए वह जगत के कार्यों के लिए किसी कर्ता की आवश्यकता स्वीकार नहीं करता है, किन्तु जीवमात्र में व्याप्त विषमताओं आदि के कारणरूप में कर्म को स्वीकार करता है । वह जीव की विविध अवस्थाओं, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, वचन और मन के प्रति कर्म को निमित्तकारण मानता है एवं अन्य कार्य अपने अपने कारणों से होते हैं । कर्म उनका कारण नहीं है । उदाहरणार्थ पुत्र का प्राप्त होना, उसका मर जाना, व्यापार में लाभ-हानि होना आदि ऐसे कार्य हैं, जिनका कारण कर्म नहीं है । किन्तु भ्रम से इन्हें कर्मों का कार्य समझा जाता है । पुत्र की प्राप्ति होने पर मनुष्य भ्रभवश उसे अपने शुभ कर्म का कार्य समझता है और उसके मर जाने पर भ्रमवश अपने अशुभ कर्म का कार्य मान लेता है, लेकिन क्या पिता के अशुभोदय से पुत्र की मृत्यु या पिता के शुभोदय से पुत्र की उत्पत्ति सम्भव है ? कभी नहीं । ये इष्टसंयोग या इष्टवियोग आदि जितने भी कार्य हैं, वे अच्छे बुरे कर्मों के कार्य नहीं हैं । जब प्रत्येक व्यक्ति के अपने-अपने कर्म हैं और उनका परिणाम वह स्वयं भोग करता है, तब एक के कार्य के लिये दूसरे को निमित्त कैसे कहा जा सकता है ? कर्मों के भेद और उनके जो नाम गिनाये हैं और उनकी जो परिभाषायें हैं, उनको देखने से भी ज्ञात होता है कि बाह्य सामग्रियों की अनुकूलता और प्रतिकूलता में कर्म कारण नहीं है । ऐसा नहीं होता है कि पहले सातावेदनीय का उदय है और तब इष्टसामग्री की प्राप्ति होती है, किन्तु इष्टसामग्री का निमित्त पाकर सातावेदनीय का उदय होता है, ऐसा है । इसलिए निमित्त और बात है और कार्य दूसरी बात है । निमित्त को कार्य कहना उचित नहीं है । कि जन्म से न यद्यपि जैन कर्मवाद की शिक्षाओं द्वारा यह बताया गया है कोई छूत होता है और न अछूत । यह भेद मनुष्यकृत है। एक के पास अधिक पूँजी का होना और दूसरे के पास फूटी कौड़ी का न होना, एक का मोटरों में घूमना और दूसरे को भीख मांगते हुए डोलना, यह भी कर्म का फल नहीं है । क्योंकि यदि अधिक पूंजी को पुण्य का फल माना जाये तो अल्पसंतोषी और साधु दोनों ही पापी ठहरेगे । किन्तु इन शिक्षाओं का जनता और साहित्य पर कोई असर नहीं हुआ । इसके वास्तविक कारण को खोजा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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