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( २० ) अच्छे भोग मिलते हैं और बुरे कर्म करने पर बुरी योनि और बुरे भोग मिलते हैं । यही बात सन्त कवि तुलसीदास जी ने इन शब्दों में कही है
करम प्रधान विश्व करि राखा,
जो जस करहि सो तस फल चाखा । अच्छे लोक के रूप में नैयायिकों की कल्पना स्वर्ग तक सीमित है और उसकी प्राप्ति अच्छे कर्म करने के साथ-साथ ईश्वरेच्छा पर निर्भर है ।
कर्मवाद को स्वीकार करने में नैयायिकों की उक्त युक्ति है। वैशेषिकों की भी इससे मिलती-जुलती युक्ति है । वे भी नैयायिकों के समान चेतन और अचेतन गत सब प्रकार की विषमता का साधारण कारण कर्म मानते हैं। यद्यपि इन्होंने प्रारम्भ में ईश्वरवाद पर जोर नहीं दिया, परन्तु परवर्ती काल में इन्होंने भी उसका अस्तित्व स्वीकार कर लिया।
इस ईश्वरकर्तृत्व को स्वीकार करने का परिणाम यह हुआ कि आत्मा का अपने अन्तस् में विद्यमान अनन्त शक्ति के प्रति विश्वास डगमगा गया, वह अपने आपको दीन, हीन, अज्ञ समझ कर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई और नियति के हाथों अपने आपको सौंप दिया। भाग्य की प्रबलता का प्रचार-प्रसार करने के लिये अनेक सुभाषितों की रचना हुई । जैसे कि पुरुष का भाग्य जागने पर घर बैठे ही रत्न मिल जाते हैं और भाग्य के अभाव में समुद्र में पैठने पर भी उनकी प्राप्ति नहीं होती है। सर्वत्र भाग्य ही फलता है, विद्या और पौरुष कुछ काम नहीं आता है। ___लेकिन जैनदर्शन में बताये गये कर्मसिद्धान्त के विवेचन से इस मत का समर्थन नहीं होता है। जैनदर्शन में कर्मवाद की प्राणप्रतिष्ठा मुख्यतया आध्यात्मिक आधार पर हुई है । वह ईश्वर को तो मानता ही नहीं और निमित्त को स्वीकार करके भी कार्य के आध्यात्मिक विश्लेषण पर अधिक जोर देता है। नैयायिक-वैशेषिकों ने कार्य-कारणभाव की जो रेखा खींची है, वह उसे मान्य नहीं है । उसका मत है कि पर्यायक्रम से उत्पन्न होना, नष्ट होना और ध्र व रहना यह प्रत्येक वस्तु का स्वभाव है। जितने प्रकार के पदार्थ है, उन सबमें यह क्रम चालू है । अनादि काल से यह क्रम चल रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा। इसमें किसी प्रकार का व्यतिक्रम आने वाला नहीं है । इसी से
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