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________________ पंचसंग्रह : २ पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकाय जीव संख्यातगृणे हैं और उनसे सब सूक्ष्म पर्याप्त विशेषाधिक हैं । १७६ से विशेषार्थ - पूर्व गाथा में कहे गये अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीवों सूक्ष्म अपर्याप्त वनस्पतिकाय जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे सामान्य वनस्पति आदि विशेषण से रहित अपर्याप्त सूक्ष्म जीव विशेषाधिक हैं । क्योंकि अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायादि के जीवों का भी उनमें समावेश होता है । अपर्याप्त सूक्ष्म जीवों से पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकाय के जीव संख्यातगुणे हैं। क्योंकि अपर्याप्त सूक्ष्म जीवों से पर्याप्त सूक्ष्म जीव तथास्वभाव से सदैव संख्यातगुणे ही होते हैं और केवलज्ञानी द्वारा वैसा जाना - देखा गया है । पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकाय जीवों से समस्त पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायादि का भी समावेश हो जाने से सभी पर्याप्त सूक्ष्म जीव विशेषाधिक हैं । शंका- पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकाय जीवों से सभी पर्याप्त सूक्ष्म जीव असंख्यातगुणे न कहकर विशेषाधिक क्यों कहे गये हैं ? जबकि बहुत बड़ी संख्या वाले सूक्ष्म पृथ्वीकाय जीवों का भी उनमें समावेश हो जाता है । उत्तर - पर्याप्त सूक्ष्म जीव पूर्वोक्त संख्या से किसी भी तरह असंख्यातगुणे नहीं होते हैं। क्योंकि पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकाय जीवों की अपेक्षा पर्याप्त पृथ्वीकायादि सभी सूक्ष्म जीव भी बहुत अल्प संख्या वाले हैं। क्योंकि पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पति जीव अनन्त लोकाकाश प्रदेशराशि प्रमाण हैं और पृथ्वीकायादि सभी सूक्ष्म पर्याप्त जीव असंख्यात लोकाकाशप्रदेश प्रमाण ही हैं । अब पर्याप्त पर्याप्त सूक्ष्मादि के सम्बन्ध में बतलाते हैंपज्जत्तापज्जत्ता सुहुमा किंचि (च) हिया भव्वसिद्धीया । तत्तो बायर सुहुमा निगोय वणस्सइजिया तत्तो ॥ ७८ ॥ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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