SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बंधक - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७६-७७ अब सामान्य पर्याप्त बादरादि विषयक अल्पबहुत्व कहते हैंकिंचि (च) हिया सामन्ना एए उ असंख वण अपज्जत्ता । विसेस अहिया एए सामन्नेणं अपज्जत्ता ॥ ७६ ॥ १७५ शब्दार्थ - किचिहिया - कुछ अधिक ( विशेषाधिक), सामन्ना - सामान्य, एए- ये एकेन्द्रिय जीव, उ — और, असंख - असंख्यातगुणे, वण- -वनस्पतिकाय, अपज्जत्ता -- अपर्याप्त, एए – ये, सामन्नेणं- - सामान्यरूप से, विसेस B ---- अहिया - विशेषाधिक, अपज्जत्ता - अपर्याप्त | गाथार्थ – उनसे सामान्य रूप से पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे अपर्याप्त बादर वनस्पतिकाय असंख्यातगुणे और उनसे सामान्य अपर्याप्त बादर विशेषाधिक हैं । विशेषार्थ - पर्याप्त बादर वनस्पतिकाय जीवों से सामान्य रूप से पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं। क्योंकि पर्याप्त बादर पृथ्वीकायादि जीवों का भी उनमें समावेश होता है । उनसे अपर्याप्त बादर वनस्पतिकाय जीव असंख्यातगुणे हैं और उनसे भी वनस्पति आदि विशेषण से रहित बादर अपर्याप्त एकेन्द्रिय जीव सामान्य रूप से विशेषाधिक हैं । अब सूक्ष्म अपर्याप्त वनस्पति आदि के सम्बन्ध में कहते हैंसुहमा वणा असंखा विसेसअहिया इमे उ सामन्ना । सुहुमवणा संखेज्जा पज्जत्ता सव्व किंचि (च ) हिया ॥ ७७ ॥ शब्दार्थ - सुहमा - सूक्ष्म, वणा - वनस्पतिकाय, असंखा - असंख्यातगुणे, विसेस अहिया - विशेषाधिक, इमे - ये, उ — और सामन्ना - सामान्य, सुहुमवणा - सूक्ष्म वनस्पतिकाय, संखेज्जा — संख्यातगुणे, पज्जत्ता - पर्याप्त, सव्व - सब, किंचिहिया - कुछ अधिक (विशेषाधिक ) । गाथार्थ - उनसे अपर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकाय जीव असंख्यात - गुणे हैं। उनसे सामान्य अपर्याप्त सूक्ष्म विशेषाधिक हैं। उनसे For Private & Personal Use Only ! www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy