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बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७८
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शब्दार्थ-ज्जत्तापज्जत्ता---पर्याप्त-अपर्याप्त, सुहुमा-सूक्ष्म, किंचिहिया-कुछ अधिक (विशेषाधिक), भवसिद्धीया-भव्यसिद्धिक, तत्तोउनसे, बायर-बादर, सुहुमा-सूक्ष्म, निगोय--निगोदिया जीव, वणस्सइवनस्पति, जिया-जीव, तत्तो-उनसे । __ गाथार्थ-उनसे पर्याप्त-अपर्याप्त सूक्ष्म जीव विशेषाधिक हैं। उनमे भव्य सिद्धिक जीव विशेषाधिक हैं। उनसे बादर सूक्ष्म निगोदिया जीव विशेषाधिक हैं और उनसे सभी वनस्पति जीव विशेषाधिक हैं।
विशेषार्थ--सभी पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों से पर्याप्त-अपर्याप्त सभी सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं। उनसे भव्यसिद्धिक जीव विशेषाधिक हैं। क्योंकि सर्व जीवों की संख्या में से जघन्य युक्तानन्त प्रमाण अभव्यों की संख्या को कम करने पर शेष सभी जीव भव्य हैं, अतएव पूर्वोक्त संख्या (पर्याप्त-अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों की संख्या) से भव्य जीव विशेषाधिक हैं। उनसे भी बादर और सूक्ष्म दोनों मिले हुए निगोदिया जीव विशेषाधिक हैं। क्योंकि उनमें कितने ही अभव्य जीवों की संख्या का भी समावेश हो जाता है।
प्रश्न-भव्य जीवों से बादर और सूक्ष्म निगोदिया जीव संख्यात या असंख्यातगुणे न बताकर विशेषाधिक क्यों बताये हैं ? क्योंकि निगोद में भव्य, अभव्य दोनों प्रकार के जीव हैं तथा निगोद के सिवाय अन्य जीवभेदों में भी भव्य जीव हैं । जिससे निगोद और उनके अलावा दूसरे जीवभेदों में रहे हुए भव्य जीवों से मात्र निगोदिया जीव कि जिनमें अनन्त अभव्य भी वर्तमान हैं, वे विशेषाधिक कैसे हो सकते हैं ?
उत्तर-भव्य जीवों से बादर और सूक्ष्म निगोदिया जीव किसी भी प्रकार से संख्यात या असंख्यातगुणे घटित नहीं हो सकते हैं। क्योंकि यहाँ अभव्य से रहित मात्र भव्यों का विचार किया है । अभव्य युक्तानंत संख्याप्रमाण हैं और बादर सूक्ष्म निगोद व्यतिरिक्त शेष
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