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________________ १७० पंचसंग्रह : २ गाथार्थ-उनसे अपर्याप्त पंचेन्द्रिय असंख्यातगुणे हैं। तत्पश्चात् अनुक्रम से अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय आदि विशेषाधिक, विशेषाधिक हैं। उनसे पर्याप्त अपर्याप्त पंचेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और द्वीन्द्रिय उत्तरोत्तर विशेषाधिक हैं। विशेषार्थ-पर्याप्त त्रीन्द्रिय से अपर्याप्त पंचेन्द्रिय असंख्यातगुणे हैं । उनसे अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे अपर्याप्त त्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे अपर्याप्त द्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं। यद्यपि अपर्याप्त पंचेन्द्रिय से लेकर अपर्याप्त द्वीन्द्रिय पर्यन्त के प्रत्येक भेद अंगुल के असंख्यातवे भाग प्रमाण सूचिणि सरीखे एक प्रतर के जिसने खंड होते हैं, सामान्य से उतने कहे हैं, तथापि अंगुल का असंख्यातवां भाग छोटा-बड़ा लिया जाने से किसी प्रकार से विरोध नहीं है। अपर्याप्त द्वीन्द्रिय से पर्याप्त-अपर्याप्त रूप पंचेन्द्रिय विशेषाधिक हैं। उनसे पर्याप्त-अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं। उनसे पर्याप्तअपर्याप्त त्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं। उनसे भी पर्याप्त-अपर्याप्त द्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं । अर्थाइ पर्याप्त-अपर्याप्त पंचेन्द्रियादि के अल्पबहुत्व के प्रसंग में यह जानना चाहिये कि पंचेन्द्रिय अल्प हैं और विपरीतपने से चतुरिन्द्रिय से द्वीन्द्रिय पर्यन्त विकलेन्द्रिय विशेषाधिक हैं। अब पर्याप्त बादर वनस्पतिकायादि सम्बन्धी अल्पबहुत्व बतलाते हैं पज्जत्तबायरपत्ते य तरू, असंखेज्ज इति निगोयाओ। पुढवी आऊ वाउ बायरअपज्जत्ततेउ तओ ॥७२॥ शब्दार्थ-पज्जत–पर्याप्त, बायर-बादर, पत्त य-प्रत्यक, तरूवनस्पति, असंखेज्ज इति-असंख्यातगुणे हैं, निगोयाओ-निगोद, पुढवी-पृथ्वी, आऊ-जल, वाउ-वायु, बायर-बादर, अपज्जत्त -अपर्याप्त, तेउ-तेजस्काय, तओ-नसे । गाथार्थ-उनसे अपर्याप्त बादर प्रत्येक वनस्पति के जीव असंख्यातगुणे हैं, उनसे बादर पर्याप्त निगोद असंख्यातगुणे, उनसे Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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