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________________ बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७१ १६६ नपुसक संख्यातगुणे घटित होते हैं, परन्तु ज्योतिष्क देवियों की अपेक्षा असंख्यातगुणे ही होते हैं। तो ऐसा कहना योग्य नहीं है। क्योंकि यदि देवपुरुषों की अपेक्षा देवियां असंख्यातगुणी हों तो कुल देवों की संख्या में से देवपुरुषों की संख्या कम करने पर केवल देवियों को अपेक्षा खेचर पंचेन्द्रिय नपुसक असंख्यातगुणे घट सकते हैं, परन्तु वैसा है नहीं। इसका कारण पूर्व में बताया जा चका है कि देवियों की अपेक्षा देव बत्तीसवें भाग ही हैं। इसलिये देवों की कुल संख्या में से देवपुरुषों की संख्या कम करने पर भी ज्योतिष्क देवियों से खेचर नपुसक संख्यातगुणे ही होते हैं, असंख्यातगुणे नहीं। खेचर पचेन्द्रिय नपुंसकों से थलचर पंचेन्द्रिय नपुंसक संख्यातगुणे हैं। उनसे जलचर पंचेन्द्रिय नपुसक संख्यातगुणे हैं । उनसे पर्याप्त चतुरिन्द्रिय संख्यातगुणे हैं। उनसे पर्याप्त संज्ञी असंज्ञी रूप दोनों भेद वाले पंचेन्द्रिय विशेषाधिक हैं। उनसे पर्याप्त द्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं। उनसे पर्याप्त त्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं। यद्यपि पर्याप्त चतुरिन्द्रिय से लेकर पर्याप्त द्वीन्द्रिय तक के प्रत्येक भेद अंगुल के संख्यातवें भागप्रमाण सूचिश्रेणि सरीखे एक प्रतर के जितने खंड होते हैं, उतने सामान्य से कहे हैं, तथापि अंगुल का संख्यातवां भाग संख्यात भेदवाला होने से और अनुक्रम से बड़ा-बड़ा ग्रहण किये जाने से ऊपर जो अल्पबहुत्व कहा है, वह विरुद्ध नहीं है। ___ अब अपर्याप्त पंचेन्द्रियादि विषयक अल्पबहुत्व का निर्देश करते हैंअसंखा पण किंचि(च)हिय सेस कमसो अपज्ज उभयओ।। पंचेंदिय विसेसहिया चउतिबेइंदिया तत्तो ॥७१३ . शब्दार्थ-असंखा-संख्यातगुणे, पण-पंचेन्द्रिय, किविहिय-कुछ अधिक, विशेषाधिक, सेस-शेष, कमसो-अनुक्रम से, अपज्ज-अपर्याप्त, उभयओ-उमा (पर्याप्त-अपर्याप्त), पंचेंदिय-पंचेन्द्रिय, विसेसहिया-विशेषाधिक, चउतिबेइंदिया-चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और द्वीन्द्रिय, तत्तो-उनसे । For Private & Personal Use Only Jain Education International ___www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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