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पंचसंग्रह : २ रिन्द्रिय संख्यातगुण हैं उनसे पर्याप्त पंचेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं। विशेषार्थ- पूर्वोक्त ज्योतिष्क देवियों से खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यच नपुसक संख्यातगुणे हैं। उनके संख्यातगण होने का कारण यह है कि दो सौ छप्पन अंगुलप्रमाण सूचिश्रोणि सरीखे एक प्रतर के जितने खंड होते हैं, उतने ज्योतिष्क देव हैं। इसको पूर्व में द्रव्यप्रमाण प्ररूपणा में बताया है कि दो सौ छप्पन अंगलप्रमाण सूचिश्रेणी के प्रदेश द्वारा भाजित प्रतर ज्योतिष्क देवों द्वारा अपहत किया जाता है तथा अंगल के संख्यातवें भाग सूचिश्रेणि सरीखे एक प्रतर के जितने खंड होते हैं, उतने पर्याप्त चतुरिन्द्रिय हैं। पहले द्रव्यप्रमाण अधिकार में कहा है कि पर्याप्त और अपर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव अनुक्रम से अंगुल के संख्यातवें भाग में वर्तमान आकाशप्रदेश द्वारा भाजित प्रतर का अपहार करते हैं और यहाँ अंगुल के संख्यातवें भाग की अपेक्षा दो सौ छप्पन अंगुल संख्यातगुणे ही होते हैं। इस प्रकार विचार करने पर ज्योतिष्क देवों की अपेक्षा जब पर्याप्त चतुरिन्द्रिय संख्यातगुणे घटित होते हैं तो फिर पर्याप्त चतुरिन्द्रिय की अपेक्षा संख्यात भाग प्रमाण खेचर पचेन्द्रिय नपुसकों के लिये तो कहना ही क्या ? अर्थात वे भी संख्यातगुणे ही होते हैं, असंख्यातगुणे नहीं।
कदाचित् यह कहा जाये कि देव-देवियों की विवक्षा किये बिना सामान्य ज्योतिष्क की अपेक्षा विचार किया जाये तो खेचर पंचेन्द्रिय
१ 'तत्तो असंव' इस पाठ को लेकर यदि ज्योतिष्क देवियों से खेचर नपुसकों
को असंख्यात गुणे बतलाते हैं तो उसका कारण बहुश्र त गम्य है । वयं कि इसके बाद पर्याप्त चतुरिन्द्रिय सम्बन्धी जो कहा जायेगा, वह भी ज्योतिष्क
देवों की अपेक्षा संख्यातगुणा घटित होता है। २ इसी अधिकार की गाथा १५ के विवेचन में। ३ गाथा १२ में ।
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