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________________ बंधक - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७० १६७ व्यंतर हैं । यहाँ केवल पुरुष की विवक्षा होने से वे सम्पूर्ण समूह की अपेक्षा बत्तीसवें भाग से एकरूप हीन हैं । जिससे जलचर स्त्रियों से व्यंतर पुरुष संख्यातगुणे घटित होते हैं। उनसे भी व्यंतर देवियां बत्तीसगुणी और बत्तीस अधिक हैं । व्यंतर देवियों से भी ज्योतिष्क पुरुषदेव न्यतः ज्योतिष्क देव दोसौ छप्पन अंगुल प्रमाण प्रतर के जितने खण्ड होते हैं, उतने हैं । मात्र यहाँ पुरुषदेव की विवक्षा होने से वे अपने सम्पूर्ण समूह की संख्या की अपेक्षा बत्तीसवें भाग से एकरूप न्यून हैं। जिससे व्यंतर देवियों से ज्योतिष्क पुरुषदेव संख्यातगुणं घटित होते हैं। ज्योतिष्क पुरुषदेवों से उनकी देवियां बत्तीसगुणी और बत्तीस अधिक हैं। क्योंकि पूर्व में कहा जा चुका है कि देवों में सर्वत्र बत्तीसगुणी और बत्तीस अधिक देवियां होती हैं । इसी नियम के अनुसार ज्योतिष्क देवियों को ज्योतिष्क देवपुरुषों से बत्तीसगुणी और बत्तीस अधिक जानना चाहिये । अब नपुंसक खेचर आदि के अल्पबहुत्व का प्रमाण बतलाते संख्यातगुणे हैं । सामासूचिश्रेणि सरीखे एक हैं तत्तो नपुं सहयर संखेज्जा थलयर जलयर नपुंसा । चरिदि तओ पणबितिइंदियपज्जत्त किंचि (च ) हिया ॥ ७० ॥ चउ शब्दार्थ - तत्तो — उनसे, नपुं स नपुंसक, खहयर -- खेचर. संखेज्जासंख्यातगुणे, थलयर — थलचर, जलयर - जलचर, नपुं सा - नपुंसक, रिदि― चतुरिन्द्रिय, तओ — उनसे, पणबितिड़ दिय-पंचेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, - विशेषाधिक । - त्रीन्द्रिय, पज्जत्त -- पर्याप्त, किचिहिया गाथार्थ --- उनसे नपुंसक खेचर संख्यातगुणं हैं, उनसे नपुंसक थलचर और जलचर उत्तरोत्तर संख्यातगुण हैं, उनसे चतु १ मूल टीका में ' तत्तो असंख खहयर' ऐसा पाठ है । Jain Education International For Private & Personal Use Only 1 www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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