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________________ बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७२ पर्याप्त बादर पृथ्वी, जल, वायुकाय के जीव अनुक्रम से असंख्यातगुण हैं और उनसे बादर अपर्याप्त तेजस्काय के जीव असंख्यातगुणे हैं। विशेषार्थ-पर्याप्त-अपर्याप्त द्वीन्द्रिय से पर्याप्त बादर प्रत्येक वनस्पतिकाय के जीव भी अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण सूचिश्रेणि सरीखे एक प्रतर के जितने खंड होते हैं उतने वतलाये जा चुके हैं, तथापि अंगुल के असंख्यातवें भाग के असंख्यात भेद होने से बादर पर्याप्त प्रत्येक वनस्पतिकाय के परिमाण के प्रसंग में अंगुल का असंख्यातवां भाग द्वीन्द्रिय के अगुल के असंख्यातवें भाग से असंख्यातगुण हीन लेना चाहिये । क्योंकि भाजित करने वाला अंगल का असंख्यातवां भाग छोटा लिया जाये तो उत्तर में बड़ी संख्या प्राप्त होगी। जिससे यहाँ किसी प्रकार से विरोध नहीं है। प्रज्ञापनासूत्र के महादंडक में भी अपर्याप्त द्वीन्द्रिय के अनन्तर तत्काल बादर पर्याप्त प्रत्येक वनस्पति असंख्यातगुण कही है। ___ कदाचित् यहाँ यह शंका हो कि महादंडक में अपर्याप्त द्वीन्द्रिय के बाद तत्काल ही बादर पर्याप्त प्रत्येक वनस्पति के सम्बन्ध में कहे जाने से असंख्यातगुणता घट सकती है। परन्तु यहाँ तो अपर्याप्त द्वीन्द्रिय के बाद पर्याप्त-अपर्याप्त पंचेन्द्रिय और उसके बाद अनुक्रम से चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और द्वीन्द्रिय के सम्बन्ध में कहा है । तत्पश्चात् पर्याप्त बादर प्रत्येक वनस्पति के लिये कहा है। जिससे वे असंख्यातगुणे किस तरह घट सकते हैं ? बीच में और दूसरे बहुतों के सम्बन्ध में कहने के बाद वनस्पति के सम्बन्ध में कहे जाने से अपर्याप्त द्वीन्द्रिय से विशेषाधिकपना ही घटित होता है। ___इसका उत्तर यह है कि इसमें किसी प्रकार का दोष नहीं है। क्योंकि यद्यपि बीच में पर्याप्त-अपर्याप्त द्वीन्द्रियादि के सम्बन्ध में कहा है, लेकिन वे सभी पूर्व-पूर्व से विशेषाधिक बताये हैं। विशेषाधिक यानि पूर्व संख्या से कुछ अधिक परन्तु संख्यातगुण अधिक नहीं। जिससे Jain Education International For Private & Personal Use Only ! www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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