________________
बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६८
में रहे हुए आकाशप्रदेश के तीसरे मूल के साथ पहले मूल का गुणाकार करने पर जितनी प्रदेशराशि आती है, उतने-उतने प्रमाण वाली एक प्रादेशिकी एक सूचिश्रेणि में जितने खंड होते हैं उसमें से कतिपय करोड प्रमाण गर्भज मनुष्यों को कम करने पर जो प्रमाण होता है, उतने हैं। जिससे वे असंख्यातगुणे कहे गये हैं।
इस प्रकार अनुत्तर देवों से लेकर सनत्कुमारकल्प के देवों तक का अल्प-बहुत्व बतलाने के बाद अब सौधर्म, ईशान के देवों, देवियों और भवनवासी देवों का अल्पबहुत्व बतलाते हैं
ईसाणे सव्वत्थवि बत्तीसगुणाओ होंति देवीओ।। संखेज्जा सोहम्मे तओ असंखा भवणवासी ॥६८।।
शब्दार्थ-ईसाणे-ईशान देवलोक के, सव्वत्थवि-सर्वत्र भी, बतोस गुणाओ-बत्तीसगुणी, होंति होती हैं, देवीओ-देवियां, संखेज्जासंख्यात गुण, सोहम्मे-सौधर्म देवलोक के, तओ-उनसे, असंखा-असंख्यातगुणे, भवणवासी-भवनवासी देव ।।
गाथार्थ-उनसे ईशान देवलोक के देव असंख्यातगुणे हैं। देवियां सर्वत्र बत्तीसगुणी हैं। सौधर्म देवलोक के देव संख्यातगुणे
और भवनवासी असंख्यातगुण हैं।। विशेषार्थ-संमूच्छिम मनुष्यों से ईशान देवलोक के देव असंख्यातगुणे हैं । इसका कारण यह है कि एक अंगुलप्रमाण क्षेत्र में वर्तमान आकाशप्रदेश राशि के दूसरे वर्गमूल को तीसरे वर्गमूल से गुणा करने पर जो संख्या आती है, उतनी घनीकृत लोक की एक प्रादेशिकी सूचिश्रेणि में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उतने ईशानकल्प में देव-देवियों का समूह है। समस्त देव-देवियों की संख्या को बत्तीस से भाग देने पर प्राप्तसंख्या में से एकरूप कम करने पर जो आये, उतने ईशानकल्प के देव हैं । इसलिये संमूच्छिम मनुष्यों से ईशानकल्प के देव असंख्यातगुणे बताये हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org