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________________ १६२ पंचसंग्रह : २ लांतककल्प के देवों से भी पंकप्रभा नामक चौथी नरकपृथ्वी के नारक असंख्यातगुण हैं । लांतक देवों के प्रमाण में हेतुभूत श्रेणि के असंख्यातवें भाग की अपेक्षा चौथी नरकपृथ्वी के नारकों के प्रमाण में हेतुभूत श्रेणि का असंख्यातवां भाग असंख्यातगुण बड़ा है। चौथी नरकपृथ्वी के नारकों की अपेक्षा ब्रह्म देवलोक के देव असंख्यातगुणे हैं । इनके असंख्यातगुणे होने का विचार महाशुक्र देवों की संख्या को बताने के प्रसंग में जैसा किया गया है, तदनुसार यहाँ भी समझ लेना चाहिये। ब्रह्म देवलोक के देवों से तीसरी नरकपृथ्वी के नारक असंख्यातगुणे हैं । उनसे भी माहेन्द्रकल्प के देव असंख्यातगुणे हैं। उनसे भी सनत्कुमारकल्प के देव असंख्यातगुण हैं । क्योंकि सनत्कुमारकल्प में बारह लाख और माहेन्द्रकल्प में आठ लाख विमान हैं तथा सनत्कुमारकल्प दक्षिण दिशा में है और माहेन्द्रकल्प उत्तर दिशा में एवं तथास्वभाव से कृष्णपाक्षिक जीव दक्षिण दिशा में और शुक्लपाक्षिक जीव उत्तर दिशा में अधिक उत्पन्न होते हैं। स्वभाव से कृष्णपाक्षिक जीव अधिक और शुक्लपाक्षिक जीव अल्प होते हैं। इसलिए माहेन्द्रकल्प के देवों की अपेक्षा सनत्कुमारकल्प के देव असंख्यातगुण घटित होते हैं। इन सनत्कुमारकल्प के देवों से भी दूसरी नरकपृथ्वी के नारक अत्यधिक बड़े श्रेणि के असंख्यातवें भाग प्रमाण होने से असंख्यातगुणे हैं। सातवीं नरकपृथ्वी से लेकर दूसरी नरकपृथ्वी पर्यन्त प्रत्येक पृथ्वी के नारकों की स्वस्थान में संख्या सूचिश्रेणि के असंख्यातवें भाग में विद्यमान आकाशप्रदेश राशिप्रमाण है । मात्र पूर्व-पूर्व सूचिश्रेणि के असंख्यातवें भाग की अपेक्षा उत्तरोत्तर सूचिश्रीणि का असंख्यातवां भाग अधिक-अधिक बड़ा लेना चाहिये । जिससे उपयुक्त अल्पबहुत्व घटित हो सकता है। दूसरी नरकपथ्वी के नारकों की संख्या की अपेक्षा संमूच्छिम मनुष्य असंख्यातगूणे हैं। इसका कारण यह है कि वे अंगूलमात्र क्षेत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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