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________________ १४२ पंचसंग्रह : २ विशेषार्थ-इस गाथा में देवों सम्बंधी अंतरकाल बतलाया है कि भवनपति से लेकर ईशान देवलोक तक का कोई भी देव अपनी देवनिकाय में से च्यवकर पुनः वह भवनपति आदि में उत्पन्न हो तो उसका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है । यह जघन्य अंतर अन्तमुहूर्त इस प्रकार से घटित होता है कि भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क, सौधर्म अथवा ईशानकल्प में से कोई भी देव च्यव कर गर्भज मत्स्यादि में उत्पन्न होकर सभी पर्याप्तियों से पर्याप्त होने के बाद वहाँ तीव्र क्षयोपशम के प्रभाव से उत्पन्न हुए जातिस्मरण आदि ज्ञान के द्वारा पूर्वभव का अनुभव करने से अथवा इसी प्रकार के अन्य किसी कारण से धर्म सम्बंधी शुभ भावना को भाते हुए उत्पन्न होने के बाद अन्तमुहर्त काल में मरण को प्राप्त कर उसी अपनी देवनिकाय में उत्पन्न होता है तो ऐसे जीव की अपेक्षा जघन्य अंतरकाल अन्तर्मुहूर्त घटित होता है तथा उत्कृष्ट अंतर भवनपति आदि में से च्युत होकर वनस्पति आदि में भ्रमण करते हुए आवलिका के असंख्यातवें भाग के समय प्रमाण असंख्य पुद्गलपरावर्तन काल है। अब सनत्कुमार आदि का जघन्य अंतर बतलाते हैं सनत्कुमार से लेकर सहस्रारकल्प तक के किसी भी देवलोक में से च्यवकर पुनः अपने उसी देवलोक में उत्पन्न होने वाले देवों का जघन्य अन्तर नौ दिन का है। ईशान देवलोक तक जाने के योग्य परिणाम तो अन्तर्मुहूर्त आयु वाले के भी हो सकते परन्तु ऊपर-ऊपर के देवलोकों में जाने का आधार अनुक्रम से उत्तरोत्तर विशुद्ध-विशुद्ध परिणाम हैं १ कोई जीव अपर्याप्त अवस्था में देवगतियोग्य कर्मबंध करता नहीं है। इसीलिये पर्याप्त को ग्रहण किया है । पर्याप्त होने के अनन्तर इसी प्रकार के उत्तम निमित्त मिलने पर शुभ भावना के वश अन्तमुहूर्त में ही देवगति योग्य कर्मबंध कर मरणोपरान्त ईशान देवलोक पर्यन्त उत्पन्न हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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