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बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५६
१४१ इसीप्रकार वनस्पति और अवनस्पतिपने का भी अन्तरकाल जानना चाहिये । जैसे कि वनस्पति को छोड़कर अन्य अवनस्पति पृथ्वी आदि में उत्पन्न हो पुनः वनस्पतिपने को प्राप्त करने पर जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अवनस्पतिपने का असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसपिणी प्रमाण कायस्थिति रूप अंतरकाल जानना चाहिये तथा अवनस्पति रूप का त्यागकर वनस्पति में उत्पन्न हो पुनः अवनस्पतिपना प्राप्त करने पर जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाय की असंख्यात पुद्गलपरावर्तन रूप कास्थिति अंतरकाल समझना चाहिए और पंचेन्द्रिय का अंतरकाल अपंचेन्द्रिय की कायस्थितिकाल प्रमाण और अपंचेन्द्रिय का अंतरकाल पंचेन्द्रिय का कायस्थितिकाल प्रमाण जानना चाहिए तथा मनुष्य का अमनुष्य कायस्थितिकाल प्रमाण और अमनुष्य का मनुष्य कायस्थितिकाल प्रमाण उत्कृष्ट अंतरकाल समझना चाहिए।
इसी प्रकार सर्वत्र पूर्वापर का विचार करके अंतरकाल जान लेना चाहिए किन्तु जघन्य तो सर्वत्र अन्तमुहूर्तकाल समझना चाहिये ।
इस प्रकार से मनुष्य तिर्यंचगति सम्बंधी एक जीवाश्रित अंतरकाल बतलाने के बाद अब देवगति में अंतरकाल का वर्णन करते हैं। देवगति सम्बन्धी अंतरकाल
आईसाणं अमरस्स अंतर हीणयं मुहुत्तंतो। आसहसारे अच्चुयणुत्तर दिण मास वास नव ॥५६॥
शब्दार्थ-आईसाणं-ईशान देवलोक पर्यन्त के, अमररस-देवों का अंतर–अन्तर, होणयं-जघन्य, मुहुरांतो-अन्तमुहूर्त, आसहसारे-सहस्रार तक के, अच्चुयणुत्तर-अच्युत और अनुत्तर तक के, दिण-दिन, मास-मास, .. वास “वर्ष, नव-नौ।
गाथार्थ- ईशान देवलोक तक के देवों का जघन्य अंतर अन्तमुहूर्त और सहस्रार तक के, अच्युत तक के और अनुत्तर तक के देवों का अन्तर अनुक्रम से नौ दिन, नौ मास और नौ वर्ष का है।
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