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________________ बंधक - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६० १४३ और प्रवर्धमान परिणामों का आधार उत्तरोत्तर अधिक अधिक मन की सबलता है तथा मन की सबलता अनुक्रम से वय की वृद्धि पर आधारित है । यानि अमुक उम्र वाले को अमुक सीमा तक के विशुद्ध परिणाम हो सकते हैं और उसके द्वारा उस-उसके योग्य कर्म बांध कर अमुक देवलोक पर्यन्त जा सकता है । अतः सनत्कुमारं से सहस्रार देवलोक तक में उत्पन्न होने योग्य विशुद्ध परिणाम नौ दिन की आयु वाले के हो सकते हैं। जिससे नौ दिन की आयु वाले अति विशुद्ध सम्यग्दृष्टि का सहस्रार देवलोक पर्यन्त गमन संभव है । आनतकल्प से लेकर अच्युत देवलांक तक के देवों में से च्यव कर मनुष्य में उत्पन्न हो पुनः आनतादि देवलोक में उत्पन्न होने का जघन्य अन्तरकाल नौ मास है । क्योंकि आनत से अच्युत देवलोक तक में उत्पन्न होने योग्य विशिष्ट विशिष्टतर परिणाम नौ मास की आयु वाले के संभव हैं । अतएव कम से कम उतनी आयु वाला विशिष्ट विशिष्टतर परिणाम के योग से आनत से लेकर अच्युत पर्यन्त देवलोकों में जाने योग्य कर्मों का उपार्जन कर वहाँ जाता है । प्रथम वेयक से लेकर सर्वार्थ सिद्ध महाविमान को छोड़कर शेष चार अनुत्तर तक के देवों में से च्यवकर मनुष्य हो पुनः अपने उसी देवलोक में उत्पन्न होने का जघन्य अंतर नौ वर्ष है। क्योंकि प्रकृष्ट चारित्रवान आत्मा ग्रैवेयक आदि में उत्पन्न होती है और प्रकृष्ट द्रव्य और भाव चारित्र की प्राप्ति नौ वर्ष की आयु वाले के संभव है । अतः वैसी आत्मा का अनुत्तर देवों तक गमन सम्भव है । सर्वार्थसिद्ध महाविमान में से च्यवकर मनुष्य हो पुनः सर्वार्थसिद्ध में कोई जाता नहीं, परन्तु मोक्ष में जाता है, इसलिये इसका निषेध किया है । इस प्रकार से ईशान आदि देवलोकों का जघन्य अंतर निर्देश करने के बाद अब पूर्वोक्त स्थानों का उत्कृष्ट अंतर बतलाते हैंथावरकालु कोसो सव्वट्ठे बीयओ न उववाओ । दो अयरा विजयाइसु नरएसु वियाणुमाणेणं ॥ ६० ॥ शब्दार्थ - थारकाक्कोसो— स्थावर का उत्कृष्ट काल, सव्वट्ठे – सर्वा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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