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बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५७
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गाथार्थ- गर्भज तिर्यंच, मनुष्य, देव और नारकों का विरहकाल बारह मुहूर्त, संमूच्छिम मनुष्यों का चौबीस मुहूर्त और विकलेन्द्रिय तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय का विरहकाल अन्तर्मुहूर्त का है। विशेषार्थ-निरन्तर उत्पद्यमान गर्भज तिर्यंच, गर्भज मनुष्य, देव और नारकों का उत्पाद की अपेक्षा उत्कृष्ट विरहकाल बारह मुहूर्त का है। यानि गर्भज तिर्यंच और गर्भज मनुष्य में गर्भज तिर्यंच और मनुष्य रूप से कोई भी जीव उत्पन्न हो तो उसका विरहकाल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त है। तत्पश्चात् उनमें कोई न कोई जीव अवश्य उत्पन्न होता ही है।
भवनपति आदि की विवक्षा किये बिना सामान्य से देवगति में उत्पन्न होने वाले देवों का उत्पाद की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त विरहकाल है। अर्थात् देवगति में कोई भी जीव उत्पन्न न हो तो जघन्य एक समय और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त पर्यन्त उत्पन्न नहीं हो, तत्पश्चा। भवनपति आदि किसी न किसी देवनिकाय में कोई न कोई जीव आकर उत्पन्न होता ही है। किन्तु देवगति में असुरकुमार आदि पृथक्-पृथक् भेद की अपेक्षा विचार किया जाये तो उत्पत्ति की अपेक्षा अन्तर इस प्रकार जानना चाहिये__असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, विद्युत्कुमार, वायुकुमार, अग्निकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार, दिक्कुमार, इस तरह प्रत्येक भवनपति, प्रत्येक भेद वाले व्यंतर, प्रत्येक भेद वाले ज्योतिष्क, सौधर्म और ईशान इन सभी देवों में उत्पन्न होने वाले देवों सम्बन्धी विरहकाल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट चौबीस मुहूर्त है।
सनत्कुमार देवा में जघन्य एक समय, उत्कृष्ट नौ रात्रि दिन और बीस मुहूर्त विरहकाल है। ___ माहेन्द्रदेवलोक में जघन्य एक समय, उत्कृष्ट बारह रात्रि दिन और दस मुहूर्त, ब्रह्म देवलोक में साढ़े बाईस दिन, लांतक देवलोक में
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