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________________ पंचसंग्रह : २ पचासी से छियानवै तक की संख्या में जीव उत्कृष्ट से निरन्तर तीन समय पर्यन्त मोक्ष में जाते हैं, उसके बाद अवश्य अन्तर पड़ता है। सत्तान से एक सौ दो तक की संख्या में जीव उत्कृष्ट से निरन्तर दो समय पर्यन्त मोक्ष में जाते हैं, तदनन्तर अवश्य अन्तर पड़ता है। ___ एक सौ तीन से एक सौ आठ तक की कोई भी संख्या में जीव उत्कृष्ट से निरन्तर एक समय पर्यन्त ही मोक्ष में जाते हैं। तत्पश्चात् अवश्य अन्तर पड़ता है। गाथा में अनुक्रम से एक से लेकर आठ समय पर्यन्त जो संख्या का प्रतिपादन किया है, वह पश्चानुपूर्वी से समय की संख्या समझना चाहिए। अतएव उसका अर्थ यह हुआ है कि एक सौ तीन से एक सौ आठ तक की कोई भी संख्या में जीव एक समय पर्यन्त मोक्ष में जाते हैं। सत्तानवै से एक सौ दो तक की कोई भी संख्या में जीव उत्कृष्ट से निरन्तर दो समय पर्यन्त मोक्ष में जाते हैं। इसी प्रकार यावर एक से बत्तीस तक की कोई भी संख्या में जीव उत्कृष्ट से निरन्तर आठ समय पर्यन्त मोक्ष में जाते हैं। उसके बाद अवश्य अन्तर पड़ता है। इस प्रकार सविस्तार कालद्वार का विवेचन पूर्ण करने के बाद अब अन्तरद्वार का निरूपण करते हैं। अन्तरद्वार गब्भयतिरिमणुसुरनारयाण विरहो मुहत्तबारसगं। मुच्छिमनराण चउवीस विगल अमणाण अंतमुहू ॥५७।। शब्दार्थ-गब्भय-गर्भज, तिरि-तिर्यच, मणु-मनुष्य, सुरः-देव, नारयाण-नारकों का, विरहो-विरहकाल, मुहुत्तबारसगं-बारह मुहूर्त, मुच्छिम-संमूच्छिम, नराण-मनुष्य का, चउवीस-चौबीस, विगलविकलेन्द्रिय, अमणाण-असंज्ञी पंचेन्द्रियों का, अन्तमुहू-अन्तर्मुहूर्त । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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