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बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५० पद नहीं है। यदि समस्त -समासांत पद माना जाये तो वनस्पतिकाय का विशेषण होगा और तब उससे प्रत्येक वनस्पतिकाय की स्व-कायस्थिति का प्रसंग प्राप्त होगा। किन्तु यहाँ प्रत्येक वनस्पतिकाय की अपेक्षा स्व-कायस्थिति का विचार नहीं किया गया है, सामान्य से बादर और बादर वनस्पतिकाय की स्व-कायस्थिति बतलाई है। अतएव इसका तात्पर्य यह हुआ कि सामान्य से बादर काय की तथा बादर का सम्बन्ध वनस्पति के साथ भी होने से बादर वनस्पतिकाय की उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल है और इन दोनों की जघन्य कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त है। अर्थात् यदि कोई जीव लगातार एक के बाद एक बादर का भव ग्रहण करे, सूक्ष्म न हो तो उसकी असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कायस्थिति समझना चाहिये। इसी प्रकार कोई जीव बादर वनस्पतिकाय होता रहे तो उसकी भी असंख्यात उत्सपिणी-अवसर्पिणी उत्कृष्ट कायस्थिति और जघन्य अन्तर्मुहूर्त जानना चाहिये ।
पूर्वोक्त के अनुरूप ही आहारकत्व और ऋजुगतित्व का भी काल समझना चाहिये अर्थात् यदि आहारीपना निरन्तर प्राप्त हो तो जघन्य से दो समय न्यून एक क्ष ल्लकभव प्रमाण और उत्कृष्ट से असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण काल है।
तात्पर्य यह है कि लगातार ऋजुगति हो, वक्रगति न हो तो (क्योंकि ऋजुगति में जीव आहारी ही होता है ) इतना निरन्तर आहारीपना
१ यहाँ आहारीपने का जघन्यकाल दो समय न्यून क्ष ल्लकभव प्रमाण कहा
है । उसका कारण यह है कि कम से कम क्षुल्लकभव प्रमाण आयु होती है, जिससे उतना काल लिया है और दो समय न्यून' इसलिये लिया है कि एक भव से दूसरे भव में जाता हुआ जीव विग्रहगति में ही अनाहारी होता है । विग्रहगति परभव में जाते समय दो समय या तीन समय होती हैं । उसमें आदि के एक या दो समय अनाहारीपना होता है । यहाँ जघन्य से आहारीपने का काल कहा जा रहा है, जिससे दो समय न्यून क्षुल्लक
भव कहा है। Jain Education International
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