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________________ १२२ पंचसंग्रह: २ बारम्बार सूक्ष्म पृथ्वीकाय रूप में उत्पन्न होते हुए सूक्ष्म पृथ्वीकाय का कायस्थिति काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी जानना चाहिये । इसी प्रकार से सूक्ष्म जलकाय, सूक्ष्म तेजस्काय, सूक्ष्य वायुकाय और सूक्ष्म वनस्पतिकाय का भी कायस्थिति काल समझना चाहिये। इस प्रकार से बादर पर्याप्त एकेन्द्रियादि की कायस्थिति का काल बतलाने के बाद अब प्रत्येक और बादर की स्व-कायस्थिति बतलाते हैं। पत्तेय बायरस्स उ परमा हरियस्स होइ कायठिई । ओसप्पिणी असंखा साहारत्तं रिउगइयत्तं ॥५०॥ शब्दार्थ-पत्तय-प्रत्येक, बायरस्स-बादर की, उ-और, परमाउत्कृष्ट, हरियस्स--वनस्पति की, कायठिई-कायस्थिति, ओसप्पिणी-उत्सपिणी, असंखा- असंख्यात, साहारत्तं-आहारकत्व, रिउगइयत्त-ऋजुगतित्व । गाथार्थ-बादर और बादर वनस्पतिकाय इनमें से प्रत्येक की उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी है। आहारकत्व और ऋजुगतित्व का भी इतना ही काल है। विशेषार्थ-गाथा में बादर और वनस्पतिकाय तथा आहारकत्व और ऋजुगतित्व की कायस्थिति का काल बतलाया है । इनमें से पहले बादर और बादर वनस्पतिकाय का कायस्थिति काल स्पष्ट करते हैं। गाथा में आगत 'पत्त य'-प्रत्येक यह पृथक्-भिन्न पद है, समस्त स्वोपज्ञवृत्ति में प्रत्येक और बादर ये दोनों वनस्पतिकाय के विशेषण लिये है । वहाँ बताया है कि पर्याप्त अपर्याप्त विशेषणरहित प्रत्येक बादर वनस्पतिकाय की स्वकाय स्थिति असंख्यात उत्सपिणी अवसर्पिणी प्रमाण है। आचार्य मलयगिरि ने प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार बादर और वनस्पतिकाय भिन्न-भिन्न लिये हैं और बादर वनस्पतिकाय में साधारण और प्रत्येक इन दोनों का ग्रहण किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001899
Book TitlePanchsangraha Part 02
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages270
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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