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पंचसंग्रह : २
ऋजुगति से परभव में जाते समय होता है । किन्तु विग्रहगति में अना - हारकत्व होने से विग्रहगति से जाते हुए नहीं होता है । इसीलिये वक्रगति न हो और लगातार एक के बाद एक के क्रम से ऋजुगति हो तो उत्कृष्ट से असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल होता है ।
इसी प्रकार से ऋजुगतिपने का उत्कृष्ट से असंख्यात उत्सर्पिणीअवसर्पिणी काल समझना चाहिये । क्योंकि वक्रगति न हो और एक के बाद एक निरंतर ऋजुगति हो तो असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालं पर्यन्त सम्भव होती है ।
अब बादर एकेन्द्रियादि की कार्यस्थिति बतलाते हैंमोहठि बायराणं सुहुमाण असंख्या भवे लोगा । साहारणेसु दोसद्धपुग्गला निव्विसेसाणं ॥ ५१ ॥
शब्दार्थ — मोहठि —– मोहनीय की स्थिति, बायराणं- बादर पृथ्वीकाय आदि की, सुहुमाण - सूक्ष्म की, असंखया - असंख्यात भवे - है, लोगा - लोकप्रमाण, साहारणेस - साधारण की, दोसद्धपुग्गला - अढ़ाई पुद्गलपरावर्तन, निब्बिसेसाणं - सामान्य से ।
गाथार्थ - - सामान्य से सभी बादर पृथ्वीकाय आदि की उत्कृष्ट कायस्थिति मोहनीय की ( उत्कृष्ट ) स्थिति प्रमाण, सूक्ष्म की असंख्यात लोक प्रमाण और साधारण की अढ़ाई पुद्गलपरावर्तन प्रमाण है ।
विशेषार्थ - गाथा में बादर एकेन्द्रिय आदि की कायस्थिति बतलाने के प्रसंग में पहले यह स्पष्ट करते हैं कि यथाप्रसंग किस शब्द से किसकी विवक्षा करना चाहिये ! जैसेकि गाथागत मोह शब्द से दर्शनमोहनीय कर्म की विवक्षा की गई है और सामान्य से कहे गये बादर पद से बादर पृथ्वी, जल, तेज, वायु तथा प्रत्येक और साधारण वनस्पति को ग्रहण करना चाहिये, लेकिन सामान्य से बादर या बादर वनस्पतिकाय नहीं समझना चाहिये। क्योंकि इन दोनों की कार्यस्थिति पूर्व में बतलाई जा चुकी है ।
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