________________
११४
पंचसंग्रह : २
सहस्र, हजार, तसाण-त्रसजीवों की, कायठिई-कायस्थिति, अयराण-सागरपम, इग-एक, पणिदिसु-पंचेन्द्रियों की, नरतिरियाणं-मनुष्य, तिर्यंचों की, सगट्ठभवा--सात-आठ भव । ___ गाथार्थ-एकेन्द्रियों की अनन्त सागरोपम सहस्र, त्रस जीवों की दो हजार सागरोपम, पंचेन्द्रियों की एक हजार सागरोपम और
मनुष्य तिर्यंचों की सात-आठ भव कायस्थिति है। . विशेषार्थ-गाथा में जाति की अपेक्षा एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त, काय की अपेक्षा स्थावर से लेकर त्रस काय के जीवों की और गति की अपेक्षा मनुष्य और तिर्यंच की कायस्थिति का विचार किया गया है। . बार-बार उसी भव में उत्पन्न होना, जैसे कि एकेन्द्रिय में मरकर पुनः-पुनः एकेन्द्रिय होने को, द्वीन्द्रिय में मरकर पुनः-पुनः द्वीन्द्रिय में उत्पन्न होने को कायस्थिति कहते हैं।
इस प्रकार की कायस्थिति एकेन्द्रियों की अनन्त सागरोपम सहस्र प्रमाण है-'एगिदियाणणंता', यानि एकेन्द्रिय अनन्त उत्सपिणी अवसर्पिणी प्रमाणकाल पुनः-पुनः एकेन्द्रिय भव को धारण कर सकते हैं। एकेन्द्रियों की यह अनन्त सागरोपम सहस्र प्रमाण कायस्थिति वनस्पति की अपेक्षा से जानना चाहिये। क्योंकि वनस्पति के सिवाय शेष पृथ्वीकाय आदि सभी की कायस्थिति असंख्यात काल प्रमाण ही है। इस प्रकार से एकेन्द्रियों की कायस्थिति जानना चाहिये।
अब त्रसकाय की कायस्थिति बतलाते हैं कि 'दोण्णि सहस्सा तसाण कायठिई' अर्थात् बारम्बार त्रसकाय-द्वीन्द्रियादि रूप में उत्पन्न हो तो त्रसों की कायस्थिति दो हजार सागरोपम प्रमाण है और मात्र कुछ वर्ष अधिक समझना चाहिये तथा त्रसों में से भी पंचेन्द्रिय जीवों की कायस्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से कुछ वर्ष अधिक एक सागरोपम प्रमाण होती है-'इग पणिदिसु'। . .पर्याप्त नामकर्म के उदय वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्य और तिर्यंचों की उत्कृष्ट कायस्थिति सात अथवा आठ भव की है-'नरतिरियाणं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org