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पंचसंग्रह
तिर्यंचों में से कोई मनसहित और कोई मनरहित होते हैं। इसीलिए पंचेन्द्रिय के संज्ञी और असंज्ञी की अपेक्षा दो प्रकार हो जाते हैं ।
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संज्ञा शब्द के तीन अर्थ हैं १ - नामनिक्ष ेप, जो लोक व्यवहार के लिए प्रयोग में लाया जाता है, २ - आहार, भय, मैथुन, परिग्रह की इच्छा, ३. धारणात्मक या ऊहापोहरूप विचारणात्मक ज्ञानविशेष | जीवों के संज्ञित्व और असंज्ञित्व के विचारप्रसंग में संज्ञा का अर्थ मानसिक क्रियाविशेष लिया जाता है । यह मानसिक क्रियाविशेष ज्ञानात्मक और अनुभवात्मक होती है । अतः ज्ञान और अनुभव ये संज्ञा के दो भेद हैं । अनुभवसंज्ञा सभी जीवों में पाई जाती है, अतः वह भी संज्ञी-असंज्ञी के व्यवहार की नियामक नहीं है । किन्तु ज्ञानात्मक संज्ञा संज्ञी और असंज्ञी के भेद का कारण है । इसीलिए नोइन्द्रियावरणकर्म के क्षयोपशम या तज्जन्य ज्ञान को संज्ञा कहते हैं ।" नोइन्द्रियावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर जीव मन के अवलंबन से शिक्षा, क्रिया, उपदेश और आलाप को ग्रहण करता है ।
एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों में चैतन्य का विकास उत्तरोत्तर क्रमशः अधिक अधिक है । अत्यन्त अल्प विकास वाले एकेन्द्रिय जीवों में अव्यक्त चेतनारूप ओघ (सामान्य) ज्ञानसंज्ञा पाई जाती है । द्वीन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के जीवों में इष्टानिष्ट विषयों में प्रवृत्ति निवृत्तिरूप हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा होती है । इस विकास में भूतकाल का स्मरणरूप ज्ञान तो होता है, लेकिन सुदीर्घ भूतकाल का नहीं। तीसरी ज्ञानसंज्ञा दीर्घकालोपदेशिकी है, जिसमें सुदीर्घ भूत के अनुभवों का स्मरण और वर्तमान के कर्तव्य का निर्धारण किया जाता है । देव, नारक, गर्भज मनुष्य - तिर्यंचों में यह संज्ञा
१ णोइंदियआवरणखओवसमं तज्जबोहणं सण्णा ।
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- गोम्मटसार जीवकांड, गाथा ६५६
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