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योगोपयोगमार्गणा : गाथा ६
पाई जाती है। चौथी ज्ञानसंज्ञा दृष्टिवादोपदेशिकी है। इसमें विशिष्ट श्रुतज्ञान विवक्षित है ।"
उक्त चारों विभागों में से संज्ञी व्यवहार की कारण दीर्घकालोपदेशिकी और दृष्टिवादोपदेशिकी, यह दो ज्ञानसंज्ञायें हैं और ओघ तथा हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा वाले जीव असंज्ञी हैं ।
इस प्रकार एकेन्द्रिय के सूक्ष्म और बादर तथा पंचेन्द्रिय के संज्ञी ओर असंज्ञी भेदों को लेकर एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों के सात प्रकार हो जाते हैं । ये सातों प्रत्येक अपर्याप्त और पर्याप्त भी होते हैं ।
अब इनके पर्याप्त और अपर्याप्त मानने के कारण को स्पष्ट करते हैं ।
पर्याप्त और अपर्याप्त की व्याख्या
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पर्याप्तनामकर्म के उदय वाले जीवों को पर्याप्त और अपर्याप्तनामकर्म के उदय वाले जीवों को अपर्याप्त कहते हैं । पर्याप्तनामकर्म के उदय से पर्याप्तियों की रचना होती है और अपर्याप्तनामकर्म का उदय होने पर उनकी रचना नहीं होती है ।
पर्याप्ति नाम शक्ति का है। अतः आहारादि पुद्गलों के ग्रहण और परिणमन में कारणभूत आत्मा की शक्तिविशेष को पर्याप्ति कहते हैं । यह शक्ति पुद्गलों के उपचय से प्राप्त होती है । तात्पर्य यह है कि उत्पत्तिस्थान में आये हुए जीवों ने जो पुद्गल ग्रहण किये हैं और प्रति समय दूसरे भी पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं, अथवा जो पुद्गल पहले ग्रहण किये हुए पुद्गलों के सम्बन्ध से उस रूप में परिणत होते
१ इन हेतुवादोपदेशिकी, दीर्घकालिकी और दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञाओं का विचार दिगम्बर ग्रंथों में दृष्टिगोचर नहीं होता है ।
विशेषावश्यकभाष्यगत
संज्ञी - असंज्ञी - सम्बन्धी विवेचन परिशिष्ट में
देखिये |
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