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पंचसंग्रह
कारण पश्चानुपूर्वी से मन, वचन और काय योग का क्रमोपन्यास किया है।
मनोयोग आदि के उत्तरभेदों के क्रमविधान के विषय में यह दृष्टिकोण है
प्रधान मुख्य होने से पहले सत्य मनोयोग का, तत्पश्चात् उससे विपरीत, प्रतिपक्षी होने से असत्य मनोयोग का, अनन्तर उभयाश्रयी होने से सत्यमृषा का और अन्त में विकल्पविहीन मन का बोध कराने
और आगम में इसी प्रकार से उल्लेख किये जाने के कारण असत्यामषा मनोयोग का विधान किया है। इसी प्रकार से वचनयोग के भेदों के क्रम । के लिये भी समझना चाहिये।
काययोग के भेदों में पहले वैक्रिय का निर्देश चतुर्गति के जीवों में सम्भव होने से किया है। तत्पश्चात् वैक्रिय से भो अधिक श्रेष्ठ होने से वैक्रिय के बाद आहारक योग का और मोक्षप्राप्ति का साधन होने से, वैक्रिय और आहारक से भी श्रेष्ठ तथा ब्धिजन्य वैक्रियशरीर और आहारकशरीर का आधार होने से उनके बाद औदारिकशरीर का क्रमविधान किया है और कार्मण काययोग के अन्त होने पर संसार का भी अन्त हो जाता है, यह बताने के लिए सबसे अन्त में कार्मण काययोग का निर्देश किया है।
इस प्रकार से योगविषयक विवेचन जानना चाहिये। उपयोग-विचारणा __ अब योग के अनन्तर क्रम प्राप्त उपयोग के भेदों का प्रतिपादन करते हैं
अन्नाणतिगं नाणाणि, पंच इइ अट्टहा उ सागारो।
अचखुदंसणाइउचउहवओगो अणागारो ॥५॥ शब्दार्थ-अन्नाणतिगं--(अज्ञानत्रिक) तीन अज्ञान, नाणाणि-ज्ञान, पंच-पाच, इइइस प्रकार, अट्ठहा-आठ प्रकार का, उ- और, सागारो
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