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________________ योगोपयोगमार्गणा : गाया ४ के भेदों में ग्रहण करके काययोग के आठ और योगों के कुल सोलह भेद मानना चाहिये। उत्तर-कार्मणशरीर के साथ सदैव अव्यभिचारी नियत सम्बन्ध वाला होने से कार्मण के ग्रहण द्वारा तेजसशरीर का भी ग्रहण कर लिया गया समझना चाहिए तथा तैजस और कार्मण यह दोनों अविनाभावपूर्वक अनादिकाल से जीव के साथ सम्बद्ध हैं। अतः तैजस काययोग का पृथक् निर्देश नहीं किया है।' इसीलिये योगों के पन्द्रह भेद बतलाये हैं। योगों का क्रम विन्यास प्रश्न-योगों का यह कैसा क्रमविन्यास ? क्योंकि समस्त संसारी जीवों में सर्वप्रथम काययोग, तत्पश्चात् वचनयोग का विकास देखा जाता है और मनोयोग तो सभी जीवों में न होकर सिर्फ संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में ही पाया जाता है। अतः इसी क्रम से योगों के भेदों का विन्यास करना चाहिए था । अर्थात् काययोग तो एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सभी जीवों में समान रूप से है, अतः पहले काययोग का निर्देश करना चाहिये था और वचनयोग द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों में पाया जाता है. अतः काययोग के बाद वचनयोग का और मनोयोग तो मात्र संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में होता है, अतः उसका सबसे अन्त में विन्यास करना चाहिये था जिससे उनकी विशेषता ज्ञात होती । परन्तु ऐसा न करके पहले मनोयोग, पश्चात् वचनयोग और अन्त में काययोग के कथन करने का क्या कारण है ? उत्तर-अल्पवक्तव्यता के कारण तथा मनोयोग की प्रधानता बतलाने के लिये एवं आगम में इसी प्रकार का क्रम प्रसिद्ध होने से तथा योगनिरोधकाल में इसी प्रकार से निरोध किये जाने के १ (क) सदा कार्मणेन सहाव्यभिचारितया तस्य तद्ग्रहणेनैव गृहीतत्त्वात् । -पंच संग्रह, मलयगिरिटीका पृ. ६ (ख) अनादिसम्बन्धे च । -तत्त्वार्थसूत्र २/४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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