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________________ २८ पंचसंग्रह कामण काययोग से ही संसारी आत्मा मरणदेश को छोड़कर उत्पत्तिस्थान की ओर जाती है, इसको आधार बनाकर जिज्ञासु प्रश्न पूछता है कि प्रश्न-जब कार्मणशरीरयुक्त आत्मा एक गति से गत्यन्तर में जाती है, तब जाते-आते वह दृष्टिगोचर क्यों नहीं होती दिखती क्यों नहीं है ? उत्तर-आत्मा अचाक्ष ष है और कर्म पुद्गलों के अत्यन्त सूक्ष्म होने से वे चक्ष आदि इन्द्रियों के विषयभूत नहीं होते हैं। जिससे एक भव से दूसरे भव में जाते हुए भी बीच में भवशरीर-भव के साथ सम्बन्ध वाला शरीर होने पर भी निकलते और प्रवेश करते समय सूक्ष्म होने से वह दिखलाई नहीं देती है, किन्तु दिखलाई न देने मात्र से उसका अभाव नहीं समझना चाहिए।' इस प्रकार से चार मनोयोग, चार वचनयोग और सात काययोग, कुल पन्द्रह योगों का स्वरूप जानना चाहिये। अब तैजस काययोग न मानने और योगों के क्रम विन्यास के बारे में विचार करते हैं। जिज्ञासु तैजस काययोग न मानने के सम्बन्ध में अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत करता है। प्रश्न-औदारिकादि शरीरों की तरह तेजस भी शरीर है, जो खाये हए आहार-भोजन के पाक का कारण है और जिसके द्वारा विशिष्ट तपोविशेष से उत्पन्न हुई तेजोलेश्यालब्धि वाले पुरुष की तेजोलेश्या का निकालना होता है। इस प्रकार तैजसशरीर के निमित्त से आत्मप्रदेश-परिस्पन्दरूप प्रयत्न होता है। अतः उसको काययोग १ अंतराभवदेहोऽपि सूक्ष्मत्वान्नोपलभ्यते । निष्क्रामन् वा प्रविशन् वा नाभावोऽनीक्षणादपि ।' -पंचसंग्रह, मलयगिरि टीका पृ. ६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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