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योगोपयोगमार्गणा : गाथा ४
विचित्र कर्मों से बना हुआ है और समस्त शरीरों का कारणभूत है, उसे कार्मणशरीर जानना चाहिए।' ___ यह कार्मणशरीर औदारिक आदि समस्त शरीरों का कारणभूतबीजभूत है। क्योंकि भवप्रपंच को वृद्धि के बीज --कामणशरीर का जब तक सद्भाव है, तब तक ही संसार और शेष शरीर हैं, किन्तु जब मूल से इसका नाश हो जाता है, तब शेष शरीरों की उत्पत्ति सम्भव नहीं है और न संसार ही रहता है। यह कार्मणशरीर ही एक गति से दूसरी गति में जाने के लिए मूलभूत साधन है। अर्थात् वतमान भव का त्याग करने के पश्चात्-मरण होने पर जब भवान्तर का शरीर ग्रहण करने के लिए जीव गमन करता है, तब कार्मणशरीर के योग से गमन करके उत्पत्तिस्थान को ओर जाता है और उस नवीन भव के शरीर को धारण करता है। इस प्रकार यह कार्मणशरीर आगामी सर्व कर्मों का प्ररोहण-आधार, उत्पादक और त्रिकाल विषयक समस्त सांसारिक सुख-दुःखादि का बीज है।
कार्मणशरीर अवयवी है और ज्ञानावरणादि आठों कर्मों की उत्तर प्रकृतियां अवयव हैं। कार्मणशरीर और उत्तर प्रकृतियों का अवयवअवयवीभाव सम्बन्ध है।
इस कार्मण शरीर के द्वारा होने वाले योग को कार्मणयोग कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि अन्य औदारिक आदि शरीरवर्गणाओं के बिना सिर्फ कर्म से उत्पन्न हुए वीर्य (शक्ति) के निमित्त से आत्मप्रदेश-परिस्पन्द रूप जो प्रयत्न है, उसे कार्मण काययोग जानना चाहिये।
१ (क) कम्मविगारो कम्मणमट्ठविहविचित्तकम्मनिप्फन्नं ।
-पंचसंग्रह, मलयगिरिटीका पृ. ५ (ख) कर्मणा निवृत्त कार्मणं, कर्मणि भवं वा कार्मणं, कर्मात्मकं वा कार्मणमिति ।
-पंचसंग्रह, स्वोपज्ञवृत्ति पृष्ठ ४
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