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पंचसंग्रह
प्रारम्भ होने के प्रथम समय से लगाकर शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने से पूर्व अन्तर्मुहूर्त तक मध्यवर्ती काल में कार्मणशरीर की सहायता से होने वाले औदारिक काययोग को औदारिकमिश्र काययोग कहते हैं ।
यह औदारिकमिश्र मनुष्यों और तियंत्रों को अपर्याप्त अवस्था में तथा केवलि समुद्घातावस्था में भी दूसरे, छठे और सातवें समय में होता है ।
इस प्रकार से वैक्रिय आदि शुद्ध और मिश्र के छह काययोगों का स्वरूप जानना चाहिये ।
यदि इन औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीरों में उत्पत्तिसम्बन्धी विशेषता का विचार किया जाये तो औदारिकशरीर भवप्रत्ययिक और आहारकशरीर लब्धि- प्रत्ययिक हो है लेकिन वैक्रिय शरीर भव- प्रत्ययिक और लब्धि- प्रत्ययिक दोनों प्रकार का है ।
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अब काययोग के अन्तिम भेद कार्मणकाय योग का स्वरूप बतलाते हैं ।
कार्मण काययोग - कर्मरूप जो शरीर है, वह कार्मणशरीर है । अर्थात् आत्मा के साथ दूध-पानी की तरह एकाकार हुई ज्ञानावरणादि आठों कर्मों की अनन्तानन्त वर्गणाओं का जो पिण्ड है, वह कार्मणशरीर है । अथवा जो कर्म का विकार - कार्य है, ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के
१९ ओरालिय उ तत्थं विजाण मिस्सं तु अपरिपुण्णं तं । जो तेण संपजोगो ओरालियमिस्स जोगो सो ॥
-- गोम्मटसार, जीवकांड गाथा २३०
२ औदारिक मिश्रं नरतिरश्चामपर्याप्तावस्थायां केवलिसमुद्घातावस्थायां वा । --पंचसंग्रह, मलयगिरिटीका पृ. ५
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