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________________ योगोपयोगमार्गणा : गाथा ४ अथवा जो शरीर उदार अर्थात् प्रधान, श्रेष्ठ हो, वह औदारिकशरीर कहलाता है । इस शरीर का प्राधान्य-श्रेष्ठत्व तीर्थंकरों और गणधरों के शरीर की अपेक्षा समझना चाहिये। यद्यपि देवों में अनुत्तर देवों का शरीर भी अत्यन्त कान्तिवाला और प्रशस्त है, लेकिन वह शरीर भी तीर्थंकरों और गणधरों के शरीर की अपेक्षा अत्यन्त गुणहीन है। ___ अथवा उदार मोटा, स्थूल जो शरीर हो उसे औदारिकशरीर कहते हैं। क्योंकि यह शरीर कुछ अधिक एक हजार योजन प्रमाण बड़े में बड़ा हो सकता है। जिससे शेष शरीरों की अपेक्षा बहत् प्रमाण वाला है। वैक्रियशरीर से इस शरीर की बृहत्ता भवधारणीय स्वाभाविक मूल शरीर की अपेक्षा से जानना चाहिये, अन्यथा तो उत्तर वैक्रियशरीर एक लाख योजन प्रमाण वाला भी होता है । ___ यह औदारिकशरीर मनुष्यों और तिर्यंचों में पाया जाता है। लेकिन मनुष्यों में इतनी विशेषता है कि तीर्थंकरों और गणधरों का शरीर प्रधान (सारयुक्त पुद्गलों से और शेष मनुष्यों और तियंचों का शरीर असार पुद्गलों से बनता है। इस औदारिकशरीर से उत्पन्न शक्ति के द्वारा जीव के प्रदेशों में परिस्पन्द का कारणभूत जो प्रयत्न होता है, वह औदारिक काययोग कहलाता है। पूर्वोक्त औदारिकशरीर जब तक पूर्ण नहीं होता है, तब तक औदारिकमिश्र कहलाता है। अर्थात् औदारिकशरीर की उत्पत्ति १ प्रत्येक वनस्पतिकाय का शरीर कुछ अधिक एक हजार योजन का है। जन्म से मरण पर्यंत जो शरीर रहे, उसे भवधारणीय शरीर कहते हैं। ३ अपने मूल शरीर से अन्य जो शरीर किया जाता है, उसे उत्तरवैक्रिय कहते हैं । उत्तर यानी दूसरा । यह शरीर एक साथ एक अथवा उससे भी अधिक किया जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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