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पंचसंग्रह
यह आहारकशरीर शुभ, विशुद्ध और व्याघात रहित है ।" अर्थात् यह आहारकशरीर रस, रुधिर आदि सप्त धातुओं से रहित, शुभ पुद्गलों से निर्मित, शुभ प्रशस्त अवयव और प्रशस्त संस्थानसमचतुरस्र संस्थान, स्फटिकशिला के समान अथवा हंस के समान धवल वर्ण वाला और सर्वांगसुन्दर होता है । वैक्रियशरीर की अपेक्षा अत्यन्त प्रशस्त होता है तथा इसका काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है ।
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यह आहारकशरीर किन्हीं - किन्हीं श्रुतकेवलियों को होता है, सभी को नहीं। क्योंकि सभी श्र तकेवलियों को आहारकलब्धि नहीं होती है और जिनको होती भी है, वे भी उपर्युक्त कारणों के होने पर लन्धि का उपयोग करते हैं ।
इस आहारकशरीर द्वारा उत्पन्न होने वाले योग को आहारक काययोग कहते हैं ।
आहारकशरीर की उत्पत्ति प्रारम्भ होने के प्रथम समय से लेकर शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने तक अन्तर्मुहूर्त के मध्यवर्ती अपरिपूर्ण शरीर को आहारकमिश्र काय और उसके द्वारा उत्पन्न होने वाले योग को आहारकमिश्र काययोग कहते हैं ।
औदारिक काययोग - पुरु, महत्, उदार, उराल ये एकार्थवाची शब्द हैं । अतः जो उदार (स्थूल) पुद्गलों से बना हुआ हो, उसे औदारिकशरीर कहते हैं ।
(क्रमशः ) कज्जम्मि समुध्पन्ने सुय केवलिणा विसिट्ठलडीए । जएत्थ आहरिज्जइ भमि आहारगं तं तु ॥
१ शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं २ अंतोमुहुत्त कालट्ठिदी जहणिदरे ।
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- पंचसंग्रह, मलयगिरिटीका पृ. ५ -तत्त्वार्थसूत्र २/४६
-योम्मटसार, जीवकाण्ड गाथा २३७
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